लेख


गीतरचना - श्रीमती शैलजा गांगुली 
संगीतरचना - श्रीमती मीरा बलसावर  
संगीतसंयोजन -  श्री केदार पंडित
 


अब एक धाम है, एक लक्ष्य है, एक ही है आधार
अब एक धाम है एक लक्ष्य है एक ही है आधार - २
गुरुशक्ति से बँधे हैं हम सब - २


बाँटें निर्मल प्यार 
हम सारस्वत परिवार - ४
दूर हुआ दुर्मति का अँधेरा हृदय कमल में जगा सबेरा - २
साधना क्रम के नित नव रंग में झूम उठा संसार - १
हम सारस्वत परिवार - २


भाषा जो भी क्यों न हो, बोलेंगे हम प्रेम की बोली - २
श्री गुरु ने हमें आश्रित करके कर्मों की गठरी जो ढो ली - २
नामस्मरण की नाव पे चढ़कर चलेंगे अब उस पार - १
हम सारस्वत परिवार – २ 


है यह घनिष्ठ पुराना नाता शिवजी पिता हैं शक्ति माता
श्रद्धा भक्ति से गुरु हाथों  सौंप जो दी पतवार - २
उन्हीं के अनुग्रह से पहुँचेंगे हम मुक्ति के द्वार - १
हम सारस्वत परिवार - २
हम सारस्वत परिवार

 

लेखक - श्री विनय कल्याणपुर
हिंदी भाषांतर - अनुवाद समिति 


उत्तर भारत यात्रा की परियोजनाएँ और तैयारियाँ कई महीनों पूर्व प्रारंभ हो गयीं थीं। ४० दिनों में सड़क द्वारा ६०००  किलोमीटर की दूरी और उसमें ७ नए अनजान स्थलों की यात्रा तय करना - इस की कल्पना करना ही मेरे लिए असंभव  जैसा था । परंतु मैंने इसमें सहभागी होने का निश्चय इसलिए किया क्योंकि इस यात्रा के लिए स्वयं परम पूज्य स्वामीजी ने स्वीकृति दी थी और हम उन्हीं के सान्निध्य में  यात्रा पर जा रहे थे। अब पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो मुझे बहुत खुशी होती है कि मैंने यात्रा पर जाने का निर्णय लिया। हमारे मठ के साधकों के साथ यह मेरी पहली यात्रा थी और मैंने इसके हर एक क्षण का भरपूर आनंद उठाया। 

हम १८ यात्री ११ फरवरी को कार्ला मठ में एकत्रित हुए। यहाँ शिराली से एक सुविधापूर्ण २५ सीटों वाली बस में, हमारे वाहन चालक अनिमय और मंजु, हमारे कई अन्य सहयात्रियों के साथ शिरालीसे पहले ही पहुँच चुके थे। इन दो युवा चालकों इस संपूर्ण लंबी किंतु सुनियोजित यात्रा में  इस बस को चलाने का  उत्तरदायित्व जो इन्होंने बडी जिम्मेदारीसे निभाया   १२ फरवरी २०२३, इस ऐतिहासिक दिन का उदय हुआ और हमने कार्ला मठ से सुबह ८.५८ बजे परम पूज्य स्वामीजी और उनके सेवक वर्ग के प्रस्थान के पश्चात् अपनी यात्रा प्रारंभ की। 

हमारा पहला गंतव्य था - “ शंकरालोक ” | संवित् साधनायन द्वारा प्रबंधित एक बहुत ही शांत और सुंदर आश्रम, जहाँ शंकर भगवान और देवी पार्वती को समर्पित एक मंदिर तथा एक नवग्रह स्थली भी है और जहाँ नवग्रह विग्रह अपनी अपनी निर्धारित वनस्पतियों के साथ स्थापित हैं। परम पूज्य स्वामीजी और उनके सेवक वर्ग १२ तारीख को रात्रि ११.३० बजे शंकरालोक पहुँचे। परम पूज्य स्वामीजी का निवास शंकरालोक आश्रम में ही था तथा हमअन्य यात्रियों को कुछ ही दूरी पर आरामदेह “त्रिमंदिर” में ठहराया गया था। 

अगले तीन दिनों में हमारे श्रद्धेय गुरु के दिव्य सान्निध्य में अनौपचारिक संवाद, स्वाध्याय, आशीर्वचन, भावपूर्ण भजन, आदि कार्यक्रम हुए।  यात्रा के हर एक पडाव में ये बहुमूल्य क्षण, स्थानीय साधकों द्वारा पूर्व नियोजित कार्यक्रमों के साथ साथ उपलब्ध थे।
व्यक्तिगत रूप से, मेरे लिए इस यात्रा में कई प्रथम अनुभव थे - परम पूज्य स्वामीजी और उनकी उनके परिचारक वर्ग के साथ मेरी सर्वप्रथम यात्रा और स्वाध्याय में भी पहली बार मेरी उपस्थिति ...  मेरे आनंद की सीमा न रही जब परम पूज्य स्वामीजी ने सुंदर “गौरी दशकं स्तोत्र” पर दो दिन का स्वाध्याय संचालित किया - मैंने सीखा कि शक्ति की आराधना एक साधक के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि उसके अनुग्रह के बिना कोई भी, शिव तक पहुँचने की आशा नहीं कर सकता –जो उसका अंतिम लक्ष्य है । 

स्वाध्याय के बाद, शिल्पा मुदूर पाच्ची द्वारा संस्कृत संभाषण के दो आकर्षक सत्र भी आयोजित किये गए थे। उन्होंने  अपनी अभिनय-शैली द्वारा सरल संस्कृत में एक पौराणिक कहानी का प्रस्तुतीकरण किया जिसके पश्चात् प्रश्न-उत्तर का क्रम चला। मुझे आश्चर्य हुआ कि संस्कृतभाषा का ज्ञान न होने पर भी हम सब इस कहानी को इतनी अच्छी तरह से समझ पाए। शिल्पा पाच्ची का कौशल्य अत्यंत श्रेयस्करऔर प्रशंसनीय है। 

स्वामीजी द्वारा सरल भाषा में दिये गये उपदेश और गहरे अर्थपूर्ण संदेशों ने हर एक संध्या को अनमोल बना दिया, चाहे वह एक अनौपचारिक सत्संग हो या फिर औपचारिक आशीर्वचन। 

हमारे धर्म प्रचारक – डॉ. चैतन्य गुलवाड़ी माम ने संत नामदेव पर कीर्तन प्रस्तुत किया .. यह एक सुखद आश्चर्यजनक अनुभव था क्योंकि हममें से अधिकांश साधक उनके व्यक्तित्व के इस अद्भुत पहलू से अनजान थे। कीर्तनकार की परंपरागत आकर्षक वेशभूषा में, अपने कुशल और भावपूर्ण वर्णन से उन्होंने सबको मंत्रमुग्ध कर दिया। शंकरालोक में एक अन्य विशेष आकर्षण था - परम पूज्य स्वामीजी द्वारा ९६  यात्रियों के साथ २००२  में की गई कैलाश मानसरोवर यात्रा पर एक प्रस्तुतीकरण, जिसे चैतन्य गुलवाड़ी माम ने भक्तिभावपूर्ण और आकर्षक शैली में अपनी रंजक टिप्पणियों के साथ एक  प्रस्तुतीकरण - “पावर पॉंईंट प्रेजन्टेशन” के माध्यम से दिखाया। 

‘कैलाश’ में रुचि रखने वाले किसी भी व्यक्ति और यहाँ तक कि हर किसी को, जब भी संभव हो यह प्रस्तुतीकरण अवश्य देखना चाहिये क्योंकि २० दिनों की अवधि में पूरी की गई इस पूरी यात्रा में  झेली गई बाधाओं , चुनौतियों , प्रगति  और अंत में यात्रा की सफलता का आंखों देखा हाल इस प्रस्तुतीकरण हमें दिखाता  है जिस पर हम सभी चित्रापुर सारस्वतों को निश्चित रूप से गर्व होना चाहिये । व्यक्तिगतरूप से, इस “पी.पी.टी” से मैंने यह पाया  कि यह परिक्रमा हमारे अपने दैनिक जीवन के समान ही है जो अनेक विषम परिस्थितियों का सामना करता रहता है, परंतु अपने पूज्य गुरु और श्री भवानीशंकर महादेव के प्रति अपनी श्रद्धा के बल से हम हर संकट पर विजय पाकर, अपने जीवन के हर क्षण को अविस्मरणीय बना सकते हैं। 

१५ फरवरी, शंकरालोक में हमारा अंतिम दिन, धर्म सभा के साथ संपन्न हुआ - स्थानीय साधकों के लिए पादुका- पूजन करने का यह एक सुनहरा अवसर था और साथ ही यह  हम सभी के लिए स्वामी नारायण गिरिजी महाराज और परम पूज्य स्वामीजी द्वारा प्रदत्त  आशीर्वचन के श्रवण का एक दिव्य अवसर सिद्ध हुआ। स्वामी नारायण गिरिजी महाराज ने संत सरोवर में व्यतीत किए हुए दिनों का स्मरण करते हुए, संत सरोवर में परम पूज्य श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी द्वारा आचरित तपस्या और साधना का विशेष उल्लेख किया। स्वामी नारायण गिरिजी महाराज ने बड़े ही गर्व एवं आत्मीयता से कहा कि उन्होंने पूज्य सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी को अपनी उत्कट साधना से एक आदर्श संन्यासी, आदर्श शिष्य तथा आगे चलकर आदर्श मठाधिपति के रूप में वृद्धिंगत होते हुए देखा है। यह प्रसंग वस्तुतः  हमारे लिए अत्यन्त प्रसन्नता और गर्व का क्षण था। प्रत्युत्तर में हमारे पूज्य स्वामीजी द्वारा प्रदत्त आशीर्वचन तो हम सभी के लिए निश्चित ही एक विनम्र तथा सचेत अभिव्यक्ति की सीख थी । 

हमारी यात्रा का दूसरा गंतव्य राजस्थान में श्री डूंगरगढ़ था। यह यात्रा १६ फरवरी को १४ घंटों में पूरी हुई। यात्रा का यह चरण हम सभी के लिए कई कारणों से रोमांचक था क्योंकि हम सभी पहली बार श्री डूंगरगढ़ आए थे । दूसरे,यह कोई नहीं जानता था कि क्या अपेक्षा रखी जाए। तीसरे, स्थानीय सारस्वतों द्वारा अनेक विशेष कार्यक्रम आयोजित किए गए थे -  शोभा यात्रा तथा परम पूज्य स्वामीजी द्वारा चार याम शिवरात्रि पूजन जो यहाँ पहली बार होने जा रहा था। 

अगले दिन दोपहर २ बजे शोभा यात्रा शुरू हुई। रोचक घटना यह थी  कि हमारे “आमची” साधकों में से ४ साधकों को घोड़ों की और अन्य ४ साधकों को ऊँटों की सवारी करने का अपूर्व  अवसर मिला।  शहर में होने वाली इस लंबी शोभायात्रा के लिए दो सुसज्जित सफेद घोड़ों द्वारा खींचे गए रथ में परम पूज्य स्वामीजी विराजमान थे। चिलचिलाती धूप भी किसी के उत्साह को क्षण भर के लिए कम नहीं कर पाई। अपने गुरु के आगमन का उत्सव मनाने सड़कों पर सैकड़ों साधक उमड़ पड़े । शोभा-यात्रा का कार्यक्रम एक घंटे तक चला। उसके पश्चात्, स्थानीय सारस्वत साधकों द्वारा आयोजित एक धर्म सभा का शुभारंभ दीप-प्रज्वलन और श्री गुरु पादुका पूजन के साथ हुआ, एवं जिसका समापन परम पूज्य स्वामीजी के बहुप्रतीक्षित आशीर्वचन के साथ हुआ।  

अगले दिन, १८ फरवरी को महाशिवरात्रि का पावन पर्व था।  परम पूज्य स्वामीजी द्वारा रात १० बजे से सुबह ५.३०  बजे तक चार याम शिव पूजन का विशेष आयोजन था। हम स्वयं को सौभाग्यशाली मानते हैं कि इस पूजन में भाग लेने का हमें सुअवसर प्राप्त हुआ। उसी सुबह सभी महिलाओं ने पारंपरिक रिवाज के अनुसार अपनी हथेलियों में मेहंदी लगाई। पहली बार इस पूजा में सहभागी होने वाले स्थानीय साधकों का उत्साह तो देखते ही बनता था। उनके मन में अनेक प्रश्न उमड़ रहे थे। हमारे वरिष्ठ साधकों ने सुयोग्य उत्तरों से उत्तर देकर उनका समाधान किया।  शाम होते-होते पूजा का मंच सज चुका था। भगवान भवानीशंकर को मन्त्रोच्चारों सहित समारम्भ पूर्वक मंच पर लाया गया और हमारे वैदिकों ने पूजन संबन्धित सभी आवश्यक तैयारियाँ की। पूज्य स्वामीजी के साथ कई स्थानीय साधकों ने पूजा में सहभाग लिया। हमारे परम पूज्य स्वामीजी ने प्रथम याम का पूजन रात्रि १० बजे प्रारंभ किया। पूजन के समय, परम पूज्य स्वामीजी का दिव्य दर्शन और अनुग्रह प्राप्त करके सभी साधक कृतार्थ हो गए। वातावरण बहुत दिव्य था और सभी ने सर्द रात्रि के बावजूद शिवपूजन के हर क्षण का भरपूर आनंद लिया। 

पहले याम के पूजन के बाद पूज्य स्वामीजी ने अगले तीन यामों तक मौन का आचरण किया। इन तीनों यामों में, श्रीकर बलजेकर माम, वरुण मल्लापुर माम और समीर मासुरकर माम को बारी-बारी से मंत्र पाठ करने का अमूल्य अवसर प्राप्त हुआ और इन्होंने इसे सहजता से, पूज्य स्वामीजी द्वारा किये जा रहे पूजविधियों के साथ बहुत अच्छी तरह से तालमेल बिठाकर निभाया। व्यक्तिगत रूप से इस पूरी रात का जागरण और शिव आराधना में किए गए साधनामय प्रयास से मैं अत्यंत प्रसन्न और प्रभावित था। चौथे याम के संपन्न होने पर, हम सभी को अपने प्रिय गुरु के दिव्य हस्त से तीर्थ प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

१९ फरवरी की शाम को, एक फार्म हाउस और पास के “सैंड-ड्यून्स रेत के टीलों की सैर निर्धारित की गई थी। रेत के टीलों पर चढ़ना और नीचे फिसलना एक निर्मल आनंद था। इसके पश्चात् हम सभी को “बिग्गा बास” नामक जगह के एक विशाल फार्म में ले जाया गया। यह पालक, टमाटर, फूलगोभी, मूली, सरसों आदि की खेती करने वाला एक विशाल परिसर था। राजस्थान में इतने बड़े क्षेत्र में इतनी विस्तृत हरियाली देखना अविश्वसनीय सा था। हमने चूल्हेपर बाजरे का रोटला बनते देखा, जो रात के भोजन में खेत की ताजी सब्जियों के साथ हमें परोसा गया। हम सभी ने सूर्यास्त के समय इस भोजन का आनंद लिया, जिसमें ताजे बाजरे का रोटला, मीठा चूरमा, ग्वार की सब्जी और वाह ....मसालेदार मिर्च-चटनी भी शामिल थी। भोजन के साथ-साथ हम खूब सारा ताजा छाछ भी पीकर संतुष्ट हुए। 

दूसरे दिन, सुबह हमारी महिला साधिकाओं ने नवरात्रि नित्यपाठ और श्री देवी अनुष्ठान किया जिसमें कुछ स्थानीय महिलाएँ भी शामिल हुईं।  पुरुष वर्ग ने गायत्री अनुष्ठान किया। शाम को हमने डूंगरगढ़ में बाजार की सैर की, जहाँ हम में से कई यात्रियों  ने असली राजस्थानी खरीदारी का अनुभव लिया। वापस लौटने के पश्चात् डॉ चैतन्य गुलवाड़ी माम ने "कैलाश - मानसरोवर यात्रा" और "चित्रापुर विरासत" पर प्रस्तुतीकरण किया। दोनों आकर्षक प्रस्तुतियों ने दर्शकों को पूरे समय मग्न  रखा। स्थानीय साधक परम पूज्य स्वामीजी के साथ कैलाश जाने वाले ९६  यात्रियों की संख्या से बहुत प्रभावित हुए। उनके पास मौसम, दूरी, चढ़ान आदि से संबंधित भी कई प्रश्न थे जिनका समाधान चैतन्य गुलवाड़ी माम ने बहुत ही अच्छे तरीके से किया। 

अगली शाम, कई पाठशालाओं से लगभग २०० बच्चों के साथ शिल्पा मुदूर पाच्ची द्वारा आयोजित संस्कृत संभाषण तथा परम पूज्य स्वामीजी के साथ संवाद का भी आयोजन किया गया था। शिल्पा पाच्ची ने हाथ की कठपुतली के साथ एक शेर के शावक और उसके हिरण मित्र इमली की कहानी को अभिनय द्वारा बहुत ही खूबसूरती से सुनाया। अत्यंत प्रसन्नता का विषय यह था कि बच्चों ने कहानी को तुरंत आत्मसात करके, उनके प्रश्नों के बिल्कुल सही उत्तर दिए। एक स्थानीय गुरुकुल के बच्चों ने कुछ संस्कृत श्लोकों का पाठ किया। तत्पश्चात् सभी बच्चों को पूज्य स्वामीजी ने चाकलेट प्रसाद रूप में दी। परम पूज्य स्वामीजी के विशेष अनुग्रह से प्रसाद भोजन की व्यवस्था की गई और सभी बच्चों ने स्वादिष्ट भोजन का आनंद उठाया। 

अगले दिन सुबह २२ फरवरी को हमें श्री डूंगरगढ़ के “आडसर बास” में स्थित "गोपाल गोशाला" ले जाया गया, जहाँ कुछ दर्जन गीर गायें भी थीं। पूज्य स्वामीजी के प्रश्नों का समाधान तुरंत ही गोशाला के मालिक ने किया । हम समापन धर्मसभा में भाग लेने के लिए ठीक समय पर लौटे और परम पूज्य स्वामीजी के दिव्य आशीर्वचन से आशीर्वादित हुए। 

२३ फरवरी को, परम पूज्य स्वामीजी और उनके सेवकों ने हमारे सारस्वत बंधु- भगिनी से अश्रुपूर्ण विदाई लेकर हरिद्वार के लिए प्रस्थान किया- सड़क द्वारा लगभग ५६१ किलोमीटर और १२ घंटे की दूरी पार करनी थी।  

हरिद्वार जाते समय हम सभी ने भिवानी के पास एक मंदिर के परिसर में बैठकर भोजन किया जो श्री डूंगरगड़ के व्यवस्थापकों द्वारा बड़े ही प्रेम से हमारे लिए बनाया गया था।  रात ९.४५ बजे हम हरिद्वार पहुँचे। काशी मठ संस्थान के व्यास आश्रम में रुचिकर “आमचीगेले” रात्रि भोजन के पश्चात्, यात्री अपने अपने निर्धारित कमरों में चले गए। व्यास आश्रम का मुख्य मंदिर भगवान वेदव्यास को समर्पित है। इसके पार्श्व में श्री काशी मठ संस्थान के पूज्य श्रीमत् सुधीन्द्र तीर्थ स्वामीजी की वृंदावन समाधि स्थित है। आश्रम एक खूबसूरत बगीचे में स्थित है जिसमें विभिन्न रंग-बिरंगे मनमोहक फूल खिले हुए हैं। यह आश्रम गंगा नदी के तट पर स्थित है और व्यास आश्रम का अपना गंगा घाट है अतः  वहाँ के भक्तगण दिन में किसी भी समय पवित्र गंगा में डुबकी लगा सकते हैं। श्री गंगा माता और नवग्रहों को समर्पित मंदिरों के युगल मानो इस निजी घाट पर पहरा देते हैं जहाँ पास में ही एक विशाल अश्वत्थ वृक्ष के नीचे अश्वत्थ-नारायण देवता का एक मंदिर स्थित है। 

व्यासाश्रम के पास कई एकड़ कृषि योग्य भूमि है जहाँ कई फसलों, सब्जियों और फलों की खेती की जाती है। मुख्य मंदिर के पास ही हमें कच्चे रुद्राक्ष फलों से लदे दो पूर्ण विकसित रुद्राक्ष के वृक्ष देखने को मिले। हरियाली के बीच अपने दिव्य मंदिरों के साथ पूरा आश्रम परिसर बहुत ही सुसज्जित, शांतिपूर्ण और निर्मल दृष्टिगोचर होता है।

अगली सुबह, काशी मठ के वर्तमान मठाधिपति, श्रीमत् संयमीन्द्र तीर्थ स्वामीजी द्वारा की गई निर्माल्य विसर्जन पूजा और आरती देखने के पश्चात् हम आश्रम की गोशाला देखने पहुँचे। यह गोशाला ५ एकड़ भूमि पर फैली हुई है और इसमें ४० जर्सी गायें और एक दर्जन प्यारे बछड़े रहते हैं। गोशाला के पार्श्व में एक विशाल खेत, घास और सब्जियाँ उगाने के लिए समर्पित है। इसमें सूखी घास रखने के लिए एक छादन (shed) भी स्थित है। इस गोशाला में जितने दूध का उत्पादन होता है, उसका उपयोग व्यास आश्रम में पूजन के साथ-साथ अन्य सभी कार्यों के लिए किया जाता है। काशी मठाधिपति ने हमारे पूज्य स्वामीजी को संपूर्ण भू-संपत्ति का दर्शन करवाया। अच्छी देखभाल एवं स्वच्छता के कारण संपूर्ण क्षेत्र रमणीय दिख रहा था। शाम को एक अनौपचारिक सत्र में, सभी यात्रियों और विश्व सारस्वत सम्मेलन के कुछ आगंतुकों को परम पूज्य स्वामीजी भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 

अगले दो दिन, २५ और २६ फरवरी को व्यास आश्रम में विश्व सारस्वत सम्मेलन के तत्त्वावधान में आयोजित अनेक कार्यक्रम प्रस्तुत हुए। इस कार्यक्रम में पूरे भारत से लगभग ३५० से ४०० प्रतिनिधि एवं अन्य आगंतुक सम्मिलित हुए थे। हमने पंजीकरण की औपचारिकताएँ सुबह १० बजे तक पूरी कर लीं, जब दोनों सारस्वत मठाधिपति - श्री चित्रापुर मठ स्वामीजी और श्री काशी मठ स्वामीजी उद्घाटन सत्र के लिए पहुँचे। इस सत्र में वेद घोष, दीप प्रज्वलन और कलाकार श्री विलास नायक द्वारा तत्काल (लाइव)कला का साक्षात् सुंदर प्रदर्शन किया गया। अल्प विराम के बाद, हमारे अपने श्री नितिन गोकर्ण माम (प्रमुख सचिव - लोक निर्माण विभाग, उत्तर प्रदेश) ने “ सारस्वत विरासत की महिमा - परंपरा, गुण और संस्कृति”, इस विषय पर विस्तार से वक्तव्य दिया। यह एक अत्यंत आकर्षक सत्र था, जिसमें प्रतिभागियों ने अंत में अनेक प्रश्न पूछे। अगले वक्ता मेजर जनरल जी.डी.बख्शी थे, जिन्होंने सरस्वती नदी के इतिहास पर उत्साहपूर्ण व्याख्यान दिया। दोपहर के भोजन के पश्चात्, प्रोफेसर अमिताभ मट्टू द्वारा कश्मीर से सारस्वतों के स्थानांतरण के इतिहास पर जानकारी देने के लिए “कश्मीर और सारस्वत” इस विषय पर एक सत्र आयोजित किया गया था। अगला सत्र श्री सिद्धार्थ पई द्वारा “भारतीय अर्थव्यवस्था” की प्रगति में सारस्वत युवा पीढ़ी का योगदान, इस विषय पर था, जिसने सम्मेलन में युवाओं को काफी मग्न रखा। बाद में, श्री दिनेश कामथ माम ने “संस्कृत हमारे इतिहास का एक अनिवार्य अंग” इस विषय पर अपने विचार प्रस्तुत किये । इस सत्र में उन्होंने बताया कि दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा - देव भाषा संस्कृत का भारतीय संस्कृति पर इतनी सदियों से किस प्रकार इतना गहरा प्रभाव रहा है। चाय के बाद हमारे श्री दुर्गेश चंदावरकर माम ( शामराव विठ्ठल को-ऑपरेटिव बैंक के अध्यक्ष) ने बैंकिंग क्षेत्र में सारस्वतों के महत्त्व और प्रभाव पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि रोजगार के कई अवसर प्रदान करने में और इतने दशकों तक भारी आय पैदा करने में इस बैंक ने  विशेष भूमिका निभाई है। इसके पश्चात्, “अपना इतिहास जानें” इस विषय से संबंधित एक प्रश्नोत्तरी सत्र था, जिसे श्री नंदमोहन शेणॉय माम ने आयोजित किया था। यह प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम अत्यंत उत्साहपूर्ण और मनोरंजक था क्योंकि यह स्मार्टफ़ोन द्वारा किया गया एक अनोखा डिजिटल अनुभव था। इसके पश्चात्, श्रीमती स्मिता शेणॉय पाच्ची और श्रीमती माया रोहित पाच्ची ने “उत्तर और दक्षिण भारत सारस्वतों के आभूषण और पहनावा” इस विषय पर एक संयुक्त सत्र प्रस्तुत किया। अब समय था - श्री गंगा पूजन का...  हमारे सभी “आमची” साधक और कुछ प्रतिनिधि, दोनों पूज्य मठाधिपतियों द्वारा किए गए गंगापूजन के दर्शन का लाभ उठाने हेतु गंगा घाट के निकट एकत्रित हुए। इस अवसर पर व्यास आश्रम के घाट को आकर्षक ढंग से सजाया गया था और घाट दीपों के प्रकाश से जगमगा रहा था। वैदिकों ने मंत्रों का पाठ किया और दोनों स्वामीजी ने साथ- साथ पूजन किया। गंगा घाट पर गंगा आरती करते हुए उनका दर्शन करना वास्तव में जीवन का एक दुर्लभ, अद्भुत अनुभव था। उपस्थित दर्शक इस दुर्लभ अवसर से मंत्रमुग्ध होकर स्वयं को सौभाग्यशाली और धन्य-धन्य मान रहे थे। संध्या के कार्यक्रम का समापन मंदिरों में आरतियों के साथ हुआ।

दूसरे दिन सम्मेलन में, प्रातःकालीन प्रथम सत्र श्रीमती शेफाली वैद्य द्वारा “सारस्वत आस्था और मंदिर” विषय पर था। यह एक अत्यंत मनमोहक तथा ज्ञानवर्धक प्रस्तुति थी जिसमें ज्यादातर गोवा क्षेत्र और उसके आसपास के सभी सारस्वत मंदिरों के इतिहास को दर्शाया गया था। श्री साहिल किणी माम ने अगले सत्र, “बिल्डिंग अ डिजिटल इंडिया - एक सारस्वत दृष्टिकोण”, में आधार कार्ड के निर्माण के समय, श्री नंदन नीलेकणी माम जैसे सुप्रसिद्ध तकनीकी विशेषज्ञ के साथ हुए अपने अनुभवों को साझा किया। इस सत्र में उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों से आए हुए सरकारी अधिकारियों और निजी कंपनी के कर्मचारियों द्वारा संगठित होकर एक साथ परियोजनाएँ बनाकर कार्य करने की सफलता पर एक अत्यंत दिलचस्प व्याख्यान दिया। अगला सत्र, योगाचार्य श्री राघवेंद्र पई माम द्वारा “योग और आनंद” पर था। उन्होंने भारत में प्रचलित योग के प्राचीन तरीकों पर विस्तार से जानकारी देकर, मनुष्यों को आनंदित और स्वस्थ रखने में योग किस प्रकार सहायता करता है, यह समझाया। इसके पश्चात् “सारस्वत पहचान और एकीकरण” पर एक पैनल सामुदायिक चर्चा हुई जिसमें हमारे श्री प्रवीण कडले माम, श्री किशोर मासुरकर माम, डॉ राम सारस्वत माम, श्री गिरीश सारस्वत माम आदि ने भाग लिया। “सारस्वत युवाओं का समावेश तथा भविष्य की योजनायें”, इस विषय पर एक अन्य पैनल चर्चा हुई, जिसमें अन्य प्रतिनिधियों के साथ हमारे श्री उदय गुरकर माम भी सम्मिलित थे। चाय के विराम के बाद, दोनों स्वामीजी समापन सत्र में  आशीर्वचन के लिए मंच पर पधारे। मधुर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत और भक्ति संगीत के कार्यक्रम के साथ सम्मेलन का समापन हुआ। 

२७ फरवरी की सुबह, हमारे यात्रियों को मनसा देवी मंदिर के दर्शन के लिए ले जाया गया, जो एक पर्वत पर है और वहाँ एक रज्जु पथ (ropeway) के माध्यम से पहुँचा जा सकता है। ऋषिकेश की एक छोटी यात्रा की भी योजना बनाई गई थी जहाँ हमारे यात्रियों को शत्रुघ्न घाट  पर गंगा-दर्शन और राम झूला के दर्शन प्राप्त हुए। हमने गंगाजल से प्रोक्षण किया और श्री गंगा स्तोत्रम् का पाठ किया। तत्पश्चात् हमने ऋषिकेश के बाजार में थोड़ी सैर की और दोपहर में स्वादिष्ट भोजन से तृप्त होकर, व्यास मंदिर में शाम की आरती में सहभागी होने के लिए हरिद्वार लौट आए। 

२८ फरवरी की सुबह, हमारे परम पूज्य स्वामीजी और काशी मठ स्वामीजी दोनों को नवग्रह मंदिर, गंगा मंदिर और अश्वत्थ-नारायण मंदिर में पूजा अर्पण करते देख हम सभी यात्री धन्य हुए। हमारे कुछ साधक-साधिकाओं ने भोजनशाला में सब्जियाँ और फल काटने और भोजन परोसने में स्वेच्छा से सेवा की। शाम को हरिद्वार में कुछ मंदिरों के दर्शन करने की भी व्यवस्था की गयी थी। शाम को ४ बजे तक हम सब बस में सवार हो गए और सबसे पहले भगवान शिव को समर्पित कनखल में दक्षेश्वर महादेव मंदिर की ओर चल पड़े । यह एक सुंदर और लोकप्रिय मंदिर है - जिसे शक्ति पीठ भी माना जाता है और जिसे सन् १८१० में रानी धनकौर ने बनवाया था। इसके पश्चात् हमने कनखल में स्थित श्री अवधेशानंद  महाराज के हरिहर आश्रम का दौरा किया। आश्रम में प्रतिष्ठित मुख्य देवता पारद शिव-लिंग का वजन लगभग १५० किलोग्राम है। शाम का अंतिम पड़ाव था हरकी पौड़ी (भगवान विष्णु के चरण), हरिद्वार में गंगा नदी के तट पर एक घाट जो शाम को सुंदर सामूहिक गंगा आरती के लिए एक बहुत ही लोकप्रिय दर्शनीय स्थल है। यहाँ आरती के लिए रुकना हमारे लिए संभव नहीं था, परंतु यहाँ वातावरण में इतनी शांति और दिव्यता रहती है कि कोई भी व्यक्ति यहाँ बिना कठिनाई के दीर्घ समय तक बैठ सकता है। व्यास आश्रम लौटने पर कुछ भजनों के साथ अनौपचारिक सत्र में हमने अपने परम पूज्य स्वामीजी के साथ थोड़ा समय व्यतीत किया। 

१ मार्च, वास्तव में एक दिव्य संयोग था - हमारे गुरुस्वामीजी, परम पूज्य श्रीमत् परिज्ञानाश्रम स्वामीजी (तृतीय) का शिष्य स्वीकार दिवस तथा वेदव्यास मंदिर में स्थापित भगवान वेदव्यासजी के विग्रह की प्रतिष्ठा की वर्धंती भी। सुबह महिलाओं द्वारा नवरात्रि नित्यपाठ और देवी अनुष्ठान तथा पुरुषों द्वारा गायत्री अनुष्ठान संपन्न हुआ। सुबह के उपाहार के पश्चात् हम सभी ने दोनों मठाधिपतियों द्वारा आचरित भगवान वेदव्यास के दिव्य अभिषेक और पूजन का लाभ उठाया। परम पूज्य सुधीन्द्र तीर्थ स्वामीजी की समाधि में स्थित गंध-लेपित वीरांजनेय का दर्शन एक अत्यंत अद्भुत दृश्य था। इसके पश्चात् दोनों पूज्य मठाधिपतियों को पट्टकाणिक गुरु-दक्षिणा समर्पित करके हमने उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया। दोपहर १२.३० बजे श्री वेदव्यास मंदिर में दोनों मठाधिपतियों की उपस्थिति में लघु विष्णु हवन की पूर्णाहुति निर्धारित की गई थी। हमने भोजनशाला में फलाहार किया और महा-आरती के पश्चात् दोपहर का भोजन किया। शाम को व्यास आश्रम में दोनों दिव्य मठाधिपतियों के पावन सान्निध्य में धर्मसभा संपन्न हुई। 

२ मार्च की सुबह, पुरुष वर्ग के लिये चैतन्य गुलवाड़ी माम और महिला वर्ग के लिये शरयू हल्दीपुर पाच्ची द्वारा प्राणायाम और निनाद के सत्र रखे गए। सभी यात्रियों ने सरल किंतु प्रभावी ढंग से दर्शाये और समझाये गए व्यायाम, कपालभाति और भस्रिका प्राणायाम के बाद निनाद के साथ इन उत्कृष्ट सत्रों का लाभ लिया। उसके पश्चात् काशी मठाधीश स्वामीजी, हमारे पूज्य स्वामीजी को व्यास आश्रम मंदिर परिसर में सब्जी इत्यादि का अवलोकन कराने ले गए। सभी यात्री अगली सुबह की वापसी यात्रा की तैयारी  में जुट गए। 

३ मार्च को सभी यात्रियों ने जल्दी ही उपाहार के बाद अपना सामान बस में चढ़ाया। हम सभी यात्री अपने अगले गंतव्य पुष्कर के लिए ६६५ किलोमीटर और ११ घंटे की दूरी की अपनी अगली लंबी यात्रा पर परम पूज्य स्वामीजी और उनके सेवकों के वाहन के पीछे रवाना हो गए ।

४ मार्च की सुबह को, तीर्थ स्थली पुष्कर में हमने पुष्कर झील के इंदरघाट का दर्शन किया। पवित्र पुष्कर सरोवर के शीतल जल में मन्त्रोच्चारण के साथ  विधिवत् डुबकी  लगाने के पश्चात् पूज्य स्वामीजी ने सरोवर के तट पर पूजा की। तत्पश्चात् संकरी गलियों से गुजरते हुए पास के तीन मंदिरों के हमने दर्शन किए अटमटेश्वर मंदिर, प्राचीन रंगजी मंदिर और नूतन रंगजी मंदिर।

भीलवाड़ा के स्थानीय सारस्वतों के निमंत्रण पर हम सभी ने अगली सुबह स्वामीजी के साथ लगभग १५० किलोमीटर दूर भीलवाड़ा की यात्रा की। लगभग २५० - ३०० सारस्वत भक्तों ने परम पूज्य स्वामीजी का स्वागत बड़े उत्साह एवं हर्षोल्लास से किया। एक औपचारिक स्वागत के पश्चात् मंच पर परम पूज्य स्वामीजी द्वारा आशीर्वचन के साथ सभा का समापन किया गया इस सभामें, पूज्य स्वामीजी ने एकत्रित हुए ब्राह्मणों की मंडली को - जो निश्चित ही अपने ब्राह्मणत्व पर गर्व करते हैं- “विद्यया, श्रद्धया, उपनिषदा” इस मंत्र का अर्थ स्पष्ट रूप से समझाया। ये सारस्वत भक्त, "हमारे सारस्वत गुरुजी" के साथ नया संबंध जोड़कर सहज ही रोमांचित हो उठे थे। 

पुष्कर में तीसरे दिन हम सभी प्रात:काल ४ बजे संपूर्ण विश्व में स्थित एकमात्र ब्रह्माजी के मंदिर के प्रांगण में पहुंचे । यह मंदिर १४ वीं शताब्दी की संरचना है जिसमें देवी गायत्री के साथ चतुर्मुख भगवान ब्रह्माजी की मूर्ति विराजमान है। ब्रह्ममुहूर्त में पुष्कर सरोवर में स्नान के बाद परम पूज्य स्वामीजी का मंदिर में आगमन हुआ। ब्रह्मा मंदिर के महंतजी ने पूज्य स्वामीजी का स्वागत किया और हमें इस मंदिर के इतिहास के बारे में जानकारी दी। प्रतिदिन सुबह साढे पाँच बजे यहाँ ब्रह्माजी की आरती होती है| आज के दिन, हमारे पूज्य स्वामीजी के पावन हस्तों से, महंत जी ने ब्रह्माजी की आरती करायी और सभी साधकों ने स्वादिष्ट कुल्हड़ वाली चाय का प्रसाद ग्रहण किया, जिसमें अभिषेक जल और अभिषेक दूध मिलाया गया था। 

उसी शाम स्थानीय आयोजकों और पुष्कर के कुछ गणमान्य व्यक्तियों द्वारा परम पूज्य स्वामीजी का अभिनंदन किया गया। पूज्य स्वामीजी द्वारा एक प्रभावशाली आशीर्वचन में श्री देवी अनुष्ठान के तीनों मन्त्रों की अर्थ सहित व्याख्या को सुनकर श्रोतागण अत्यंत प्रसन्न एवं कृतार्थ हुए। पूज्य स्वामीजी ने गुरु-उपदेश, सह-साधकों से सत्संग, शिष्य का बुद्धिपूर्वक चिंतन तथा समय का प्रभाव, इस विषय के महत्व को समझाते हुए समारोह का समापन किया। अंत में पूज्य स्वामीजी ने तीर्थ-वितरण करके सभी साधकों को आशीर्वाद दिया। 

अगले दिन ७ मार्च की सुबह, पूज्य स्वामीजी और सभी यात्रियों ने १८०  किलोमीटर और लगभग ५ घंटे की दूरी पर जोधपुर तक की यात्रा तय की। 

शाम को संवित् धाम में संवित् साधकों द्वारा आयोजित धर्म सभा में परम पूज्य स्वामीजी का बड़े ही हर्षोल्लास से स्वागत किया गया। पूज्य स्वामीजी ने अपने आशीर्वचन में, संवित् धाम की अधिष्ठात्री देवी गिरिराजेश्वरी की स्तुति में रचित 'जयति गिरिराजेश्वरी' भजन का अर्थ समझाया। उन्होंने नई प्रेरणा प्राप्त करने के लिए व्यवहार में गुरु अनुसंधान के साथ-साथ अनुस्मरण की निरंतर आवश्यकता पर बल दिया। धर्मसभा का समापन पूज्य स्वामीजी द्वारा तीर्थ-वितरण से हुआ। 

८ मार्च को सभी साधक सुबह बड़े उत्साह के साथ संवित् धाम पहुँचे क्योंकि उस दिन, बहुप्रतीक्षित अतिरुद्र यज्ञ का शुभारंभ होने जा रहा था। हमारे कई “आमची” साधकों ने “शाकल्य सेवा”और “संकल्प सेवा” के लिए अपना पंजीकरण करवाया था। पहला  विधान  'गुरु-आज्ञा व अनुमति’ को प्राप्त करने का था। पंडित नवरतन अग्निहोत्रीजी ने हमारे परम पूज्य स्वा मीजी और नारायण गिरि स्वामीजी को अतिरुद्र की प्रक्रिया के विषयमें विवरण देकर यज्ञ प्रारंभ करने की अनुमति माँगी। अगला कार्यक्रम था - भाग लेने वाले सभी यजमानों, साधकों के शुद्धीकरण की प्रक्रिया। शुद्धीकरण की प्रक्रिया दस द्रव्यों - उदा. भस्म, गंध, रेत, हल्दी, कुमकुम, पंच-गव्य इत्यादि के साथ संपन्न हुई। तत्पश्चात् शाकल्य सेवा के लिए पंजीकृत सभी महाजनों, यजमानों से यज्ञ-शाला में प्रवेश करने का अनुरोध किया गया। यज्ञ का शुभारंभ 'अरणि-मंथन' अर्थात्  यज्ञ के लिए अग्नि प्रज्वलित करने का अत्यंत उत्कृष्ट पारंपरिक तथा वेदोक्त विधान के साथ हुआ। परम पूज्य स्वामीजी और नारायण गिरि स्वामीजी की उपस्थिति में 'अरणि-मंथन' संपन्न  हुआ। प्रथम दिन रुद्र का एक आवर्तन दोपहर में संपन्न हुआ। सुबह परम पूज्य स्वामीजी ने 'शिवानंदलहरी' के चयनित से चुने हुए  श्लोकों पर स्वाध्याय संचालित किया, जिससे सभी की बुद्धि को प्रचोदन मिला और हम एकाग्रचित्त  होकर अगले पाँच दिनों तक इस पवित्र यज्ञ में सहभागी होने के लिए पूरी तरह से तैयार हो गए।

 ९ मार्च - हमारे पूज्य स्वामीजी के स्वाध्याय का दूसरा दिन....पूज्य स्वामी जी ने हमें श्लोकों के गहरे स्तरों में प्रवेश करवाया।  स्वाध्याय में लिए गए शिवानंदलहरी के श्लोकों के माध्यम से साधकों को अनेक व्यावहारिक मार्गदर्शन प्राप्त हुए और सभी साधक स्वाध्याय में सहभागी होने के लिए प्रोत्साहित हुए। इस दौरान वहाँ यज्ञशाला में दूसरा और तीसरा आवर्तन पूर्ण हुआ। एक दर्जन पंडितों द्वारा बड़ी स्फूर्ति के साथ रुद्री पाठ और  ४१ हवन कुंडों में दी जाने वाली आहुति की ध्वनि - स्वाहाकार के प्रभाव ने एक ऐसा वातावरण बना दिया, जिसका शब्दों में वर्णन करना असंभव सा है। यज्ञ की इस अद्भुत अनुभूति में उपस्थित हर एक साधक पूर्ण रूप से तन्मय हो गया। परम पूज्य स्वामीजी के सान्निध्य में सत्संग के साथ सायंकाल के कार्यक्रम का समापन हुआ।

१० मार्च की सुबह, परम पूज्य स्वामीजी द्वारा संचालित स्वाध्याय के तीसरे सत्र के लिए सभी साधक शीघ्रता से एकत्रित हुए। अतिरुद्र हवन में रुद्रीपाठ के चौथे और पाँचवें आवर्तन भी पूर्व योजना के अनुसार पूर्ण किए गए। छठवें आवर्तन का पाठ दोपहर में किया गया। शाम को पूज्य स्वामीजी ने श्री देवी पूजन किया जिसमें नारायण गिरि स्वामीजी तथा अन्य सभी साधक सहभागी हुए। पूजन के प्रभाव से सभी साधकों को एक दिव्य अनुभूति प्राप्त हुई। इसके पश्चात् वहाँ उपस्थित सभी महात्माओं से आशीर्वचन के लिए बिनती की गयी। परम पूज्य स्वामीजी ने इस बात पर विशेष जोर दिया कि गुरु का अनुग्रह तो शिष्यों पर निरंतर रहता ही है, परंतु यह हमारे जीवन में तभी प्रकट होगा जब हम अपनी साधना में दृढ़ और अटल रहेंगे। 

११ मार्च की सुबह, शरयू हल्दीपुर पाच्ची द्वारा तरु सेना के लिए व्यायाम, प्राणायाम और निनाद का सत्र आयोजित किया गया। वहाँ यज्ञ मंडप में सुबह अतिरुद्र का ७ वाँ आवर्तन संपन्न हुआ तथा दोपहर में ८ वाँ आवर्तन। 

शाम को जोधपुर के श्री जूनाखेड़ापति हनुमान मंदिर में श्री चित्रापुर मठाधिपति परम पूज्य श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी  के सम्मान में एक भव्य नागरिक अभिनंदन समारोह का आयोजन किया गया। “वशिष्ठ संगीत मंडली” के कलाकारों ने स्वागत गीत प्रस्तुत किया। जोधपुर की महारानी, रानी हेमलता राजे ने परम पूज्य स्वामीजी और नारायण गिरि स्वामीजी को सम्मानित किया। इसके पश्चात् अन्य स्थानीय गणमान्य व्यक्तियों और संस्थानों के प्रमुखों ने श्री चित्रापुर मठाधिपति परम पूज्य सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी को सम्मानित किया। अन्य कई संस्थाओं के गणमान्य प्रतिनिधि वहाँ उपस्थित थे और पूज्य स्वामीजी को सम्मानित करने के लिए अति उत्सुक थे। समारोह में उपस्थित अन्य महात्माओं का भी अभिनंदन किया गया। पूज्य नारायण गिरि स्वामीजी द्वारा भावपूर्ण प्रवचन के पश्चात् एक संस्कृत विद्वान द्वारा लिखित मानपत्र परम पूज्य स्वामीजी को अर्पण किया गया। परम पूज्य ईश्वरानंद गिरि स्वामीजी की इच्छा के अनुसार उनकी एक दिव्य स्फटिक और रुद्राक्ष से गुँथी माला का नारायण गिरि स्वामीजी द्वारा परम पूज्य स्वामीजी को समर्पण, इस सायंकालीन कार्यक्रम का प्रधान आकर्षण था। प्रासादिक माला को परम पूज्य स्वामीजी ने अत्यंत विनम्रता एवं हर्ष से स्वीकार किया। भव्य समारोह का समापन, पूज्य स्वामीजी के बोधपूर्ण आशीर्वचन के साथ हुआ। 

१२ मार्च - अतिरुद्र का अंतिम दिन, ९ वाँ आवर्तन प्रारंभ हुआ। पूर्णाहुति का समय सायंकाल का था। पूर्णाहुति एक विस्तृत धार्मिक विधि है। पूर्णाहुति के पूर्व दोपहर के सत्र में अन्य देवी देवताओं को समर्पित आहुतियाँ हुईं। कुल मिलाकर नौ आवर्तनों में १५० पंडितों, यजमानों ने आहुतियाँ दी। सायंकाल में परम पूज्य स्वामीजी तथा नारायण गिरि स्वामीजी के दिव्य हस्तों द्वारा पूर्णाहुति संपन्न हुई। अन्य आमंत्रित महात्मा भी पूर्णाहुति में उपस्थित थे। तत्पश्चात् अतिरुद्र यज्ञ संकल्प की सफल समाप्ति मंगलारती से हुई। संवित् धाम में “वसिष्ठ संगीत मंडली” के स्वागत गान से समापन धर्मसभा का शुभारंभ हुआ। सभी स्थानीय गणमान्य व्यक्तियों और प्रायोजकों को, जिन्होंने ५ दिवसीय आयोजन में योगदान दिया था, परम पूज्य स्वामीजी और नारायण गिरि स्वामीजी को सम्मानित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। श्री चित्रापुर मठ की ओर से हमारे धर्मप्रचारक डॉ. चैतन्य गुलवाड़ी माम और कृष्णानंद हेबलेकर माम ने सभा में उपस्थित नारायण गिरि स्वामीजी और अन्य महात्माओं को माल्यार्पण कर प्रणाम किया। तत्पश्चात् संवित् धाम की अध्यक्षा, श्रीमती वसंत उषा रानीजी ने परम पूज्य स्वामीजी, नारायण गिरि स्वामीजी और अन्य महात्माओं को सम्मानित किया। पूज्य स्वामीजी और नारायण गिरि स्वामीजी द्वारा बहुप्रतीक्षित आशीर्वचन के समापन के बाद, पूज्य स्वामीजी ने अतिरुद्र यज्ञ के आयोजन और सफलतापूर्वक संचालन में सहभागी सभी प्रमुख आयोजकों एवं संचालकों को प्रसाद दिया। इस अद्वितीय, महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम के समापन के पूर्व, श्री नारायण गिरि स्वामीजी ने अगली बार कोटि रुद्र यज्ञ आयोजित करने की योजना का सुझाव दिया। इस प्रकार संवित् धाम जोधपुर की अत्यंत पवित्र, प्रेरक और शिक्षाप्रद यात्रा संपन्न हुई।

अगली सुबह १३ मार्च को हम सभी इस यात्रा के अपने अंतिम गंतव्य - माउंट आबू में स्थित संत सरोवर के लिए, परम पूज्य स्वामीजी और नारायण गिरि स्वामीजी के वाहनों के पीछे-पीछे रवाना हुए। रास्ते में हमें जोधपुर के कुछ खूबसूरत स्मारकों को देखने का सौभाग्य मिला। सूची में सबसे पहले था “मंडोर गार्डन” - ऐतिहासिक संग्रहालयों, मंदिरों, फव्वारों और बहुत सारे बंदरोंवाला एक बड़ा बगीचा। ऐसा कहा जाता है कि राव जोधा द्वारा मेहरानगढ़ किले के निर्माण से पहले मंडोर जोधपुर की राजधानी थी। हम यात्रियों ने उस युग में बने मंदिरों, शिलालेखों, चित्रों और खिलौनों की बहुत सारी तस्वीरें खींच लीं। हमारा अगला पड़ाव मेहरानगढ़ किला था। यह किला राव जोधा ने १४ वीं शताब्दी में १२०० एकड़ भूमि पर जोधपुर में एक पहाड़ी की चोटी पर बनाया था। कुछ मील दूर से भी हम अपनी बस से इस शानदार संरचना को देख सकते थे। यहाँ हमने एक गाइड सुश्री शेखावत की सहायता से कुछ घंटे भ्रमण करते हुए बिताए। गाइडजी ने महल की हर वस्तु के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी दी। हममें से कुछ लोगों ने स्मरणार्थ दुकान से चूड़ियाँ, किताबें और चित्रों की खरीदारी भी की।

अंत में हम देवी चामुंडा के मंदिर गए और दर्शन किया, जो कई सदियों से जोधपुर शाही परिवार की 'इष्ट देवता' या आराध्य  देवता हैं। यह मंदिर महल की दीवारों के भीतर स्थित है क्योंकि राव जोधा इस विग्रह को मंडोर गार्डन से नए किले में स्थापित करने के लिए लेकर आये थे। हम सभी यात्रियों ने देवी के सामने नतमस्तक होकर उनके आशीर्वाद के लिए प्रार्थना की। जोधपुर के मूछवाला उपाहार गृह में  दोपहर के पेटभर भोजन के बाद, हम माउंट आबू के लिए निकल पड़े और रात को वहाँ पहुँचे।

१४ मार्च से १९ मार्च तक, हर सुबह और शाम, संत सरोवर आश्रम में श्री सोमनाथ महादेव मंदिर में पूजा और आरती देखने का हमें सौभाग्य प्राप्त हुआ। दोपहर के भोजन से पूर्व, महिला वर्ग ने ‘साधना पंचकम्’ के साथ श्री देवी अनुष्ठान और पुरुष वर्ग ने गायत्री अनुष्ठान किया। एक शाम, हम सभी ने आशा अवस्थी पाच्ची द्वारा संचालित  "यात्रा" इस विषय पर एक विमर्श में भाग लिया। सभी प्रतिभागियों ने खुलकर विचार साझा किए। सभी के सक्रिय सहभाग के कारण यह विमर्श बहुत ही आकर्षक, सूचनात्मक और संवादात्मक रहा क्योंकि हमने यात्रा शुरू करने के उद्देश्य पर गहराई से विचार विमर्श किया और साथ-साथ अनेक सबक भी सीखे। मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से यह एक रहस्योद्घाटन ही था कि यात्रा क्यों आयोजित की जाती है और  यात्रा का उद्देश्य और ध्येय क्या होता है। हमें नारायण गिरि स्वामीजी के साथ एक अनौपचारिक सत्संग का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ।

 १५ मार्च को हमने दिलवाड़ा मंदिर की यात्रा की, जो ११ वीं  शताब्दी के पाँच श्वेतांबर जैन मंदिरों का एक समूह है और ये मंदिर ज्यादातर सफेद संगमरमर से बनाये गये हैं। सभी यात्रियों ने इन सुंदर और जटिल नक्काशीदार संरचनाओं की सराहना की। शाम को हम सभी भगवान शिव के श्री धुलेश्वर महादेव मंदिर गए। मंदिर से प्रस्थान करने के पूर्व नारायण गिरि स्वामीजी की अनुकंपा से सभी यात्रियों को स्वादिष्ट आइसक्रीम खिलाई गई। लौटते समय सुरम्य सुंदर “नक्की झील” के आसपास, हमें खरीदारी करने का समय मिला, यह स्थान नौकाविहार, उपाहार और रम्य सूर्यास्त का आनंद उठाने हेतु उपयुक्त था। 

१६ मार्च की सुबह, श्री गुरुशिखर और श्री अचलेश्वर महादेव मंदिर के दर्शन हेतु सुनिश्चित की गई थी। श्री गुरुशिखर मंदिर में हमने श्री गुरु पादुका स्तोत्र और श्री परिज्ञानाश्रम त्रयोदशी का पाठ किया। माना जाता है कि ९ वीं शताब्दी के आसपास निर्मित अचलेश्वर महादेव मंदिर भगवान शिवजी के पैर के अंगूठे के चारों ओर बनाया गया था। यहाँ हम सभी यात्रियों को जलाभिषेक करने का दिव्य अवसर मिला। हमारे चैतन्य गुलवाड़ी माम ने सभी यात्रियों की ओर से मंदिर में एक छोटा सा दान दिया। लौटकर हम पूज्य स्वामीजी द्वारा  संचालित “अर्धनारीश्वर स्तोत्रम् ” के स्वाध्याय में सहभागी हुए। उसी शाम हमने निकट के गिरीश्वर महादेव मंदिर जाकर अष्टमूर्ति उपासना की।

१७ मार्च को सभी आमची यात्री और कुछ संवित् तरु युवा संवित साधकोंको “तरु” संबोधित किया जाता है एवं साधक नैसर्गिक वातावरण में कुछ समय बिताने के लिए लगभग १.५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित “टेबल टॉप फॉरेस्ट टेरेन” देखने गए। टेबल टॉप हिल के शिखर से नीचे का दृश्य अत्यंत रमणीय दिखाई दे रहा था और हम सभी कुछ मिनटों के लिए शांति से ध्यान में बैठने के लिए उत्सुक थे। आमची युवा और संवित् तरुओं  के संबंधों को अधिक दृढ़ होते देख हम हरषा रहे थे। व्यक्तिगत रूप से मैंने महसूस किया कि यह क्षण तन और मन से प्रकृति के साथ जुड़ने का एक सुनहरा अवसर था। हर उम्र के साधक ने इस छोटे से छोटी सी निसर्गयात्रा का आनंद लिया और पूज्य स्वामीजी के स्वाध्याय में सहभागी होने के लिए तरोताजा होकर समय पर आश्रम लौटे। दोपहर में अर्बुदा देवी मंदिर के दर्शन का कार्यक्रम था। इस मंदिर तक पहुँचने के लिए पहाड़ पर ३५० सीढ़ियां हैं और रास्ते में यात्रियों की चीजें छीनने की कोशिश करनेवाले कई शरारती बंदर ! मंदिर के प्रवेशद्वार से गर्भगृह में प्रवेश करने के लिए झुककर प्रवेश करना पड़ता है। अर्बुदा देवी मंदिर में प्रार्थना करने के पश्चात्, हम सभी सायंकाल की आरती के लिए संत सरोवर पहुँचे। 

१८ मार्च हम सभी के लिए अत्यंत विशेष दिन था। परम पूज्य स्वामी ईश्वरानंद गिरिजी महाराज के समाधि स्थल काचोली की यात्रा सुनियोजित थी आयोजित की गयी थी । काचोली गाँव पहुँचने के लिए हमने लगभग ४० किलोमीटर की दूरी तय की। काचोली आश्रम की देखभाल करने वाले साधक श्री निरंजन सोनीजी (कालू भाई) ने हमारा स्वागत किया। दिव्य समाधि के सामने कुछ क्षणों के लिए शांत बैठकर हमने जप किया।  

समाधि स्थल पर चारों ओर काले शालिग्राम पत्थर से निर्मित भगवान शिव की ८ नक्काशियाँ (अष्टमूर्ति) हैं। यह मंदिर शुद्ध श्वेत संगमरमर से निर्मित है। कालू भाईजी ने हम यात्रियों की ओर से एक आरती की व्यवस्था की और कुछ ग्रुप फोटो लेने में हमारी सहायता की। इस आश्रम का महत्त्व समझाते हुए उन्होंने बताया कि बड़े स्वामीजी का, एकांत अथवा सर्दियों के मौसम में निवास इस आश्रम में रहता था। इस आश्रम के एक ओर अरावली पर्वत है और दूर से धूलेश्वर मंदिर भी दिखाई देता है। कालू भाईजी ने हमें यह भी बताया कि इस जगह की जानकारी हर किसी को नहीं थी। यह स्थान बड़े स्वामीजी को बहुत पसंद था अतः  स्वामीजी ने अपनी समाधि के लिए इस स्थान का चयन किया था क्योंकि वे चाहते थे कि लोग इस स्थान की यात्रा करें और इसके सुंदर और शांत वातावरण का लाभ उठाएं। हमें यह भी बताया गया कि समग्र समाधि की संरचना और पूरी बनावट की परियोजना पूज्य बड़े स्वामीजी ने स्वयं ध्यानपूर्वक बनाई थी।

व्यक्तिगत रूप से मुझे लगा कि अगर हम इन विषयों पर कुछ मनन करें तो हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि सभी ज्ञानी महात्माओं की सोच और दृष्टि कितनी अलग है और उनका दृष्टिकोण सामान्य लोगों की तुलना में कितना व्यापक है। इस समाधि की ऊर्जा और अनुभूति स्पष्ट रूप से एक अलग स्तर पर थी। जैसा कि नारायण गिरि स्वामीजी दोहराते रहते हैं कि पूज्य बड़े स्वामीजी अभी भी आसपास हैं, हम उनके सान्निध्य को बाह्य और आंतरिक रूप से खोजें और अनुभव करें। काचोली में स्वादिष्ट नाश्ते के बाद, हम संत सरोवर लौट आए क्योंकि उस सुबह माउंट आबू के स्थानीय लोगों का परम पूज्य स्वामीजी और नारायण गिरि स्वामीजी से भेंट करने  का कार्यक्रम था। दोपहर में, महात्माओं के लिए भंडारे का भी आयोजन किया गया था। कुछ युवाओं और तरुओं ने स्वेच्छा से भंडारे में भोजन परोसा। हमारे मंगेश चिक्करमने माम इस भंडारे के प्रायोजक थे। उन्होंने इस अवसर पर उपस्थित सभी महात्माओं का स्वागत करते हुए उन्हें पारंपरिक रीति से तिलक लगाकर, काणिका दी। भंडारे में हमारे युवाओं और तरुओं ने पूरे समय भागदौड़ करके उपस्थित सभी महात्माओं को भोजन परोसने और सभी की देखभाल करने का सराहनीय कार्य किया। भंडारे के पश्चात् अन्य सभी साधकों ने स्वादिष्ट भोजन का सेवन किया। संत सरोवर में यह हमारा अंतिम दिन था और उस रात हम सब भारी मन से अपने कमरों में लौटे ताकि अगली सुबह मुंबई और कार्ला की वापसी यात्रा के लिए तैयारी शुरू कर सकें।

१९ मार्च की सुबह बस में सामान चढा कर हम अपने होटल से संत सरोवर के लिए निकल पड़े। बिदाई लेते समय सभी यात्री - युवा, तरु और संत सरोवर के साधकों ने एक दूसरे के संपर्क में रहने हेतु दूरध्वनि क्रमांक लिए। व्यक्तिगत रूप से, मुझे एक मिश्रित अनुभूति हुई क्योंकि एक ओर हमारी यात्रा अपने अंतिम चरण में थी और हम ४० दिनों के बाद अपने घर जा रहे थे । किंतु दूसरी ओर, इतने लंबे समय तक साथ रहते हुए, एक दूसरे की देखभाल करते हुए हम सभी मानो एक कुटुंब जैसे हो गए थे। अंततोगत्वा हमारे परम पूज्य स्वामीजी के संत सरोवर से कार्ला की वापसी यात्रा के लिए प्रस्थान का समय आ गया था।  अत्यधिक भारी मन से हम सभी ने अपने पूज्य स्वामीजी से आज्ञा ली - जिनके निरंतर सान्निध्य में, पिछले ४० दिनों से उनके  उपदेशों को सुनकर, भजन गाकर, अनौपचारिक सत्संगों में सहभागी होकर संतसरोवर में दोपहर और रात्रि के भोजन का, हम आनंद लिया करते थे।

पूज्य स्वामीजी और उनके सेवकों के प्रस्थान के पश्चात् हम सभी यात्रियों ने अपने बस के दोनों विनम्र चालक -जिन्हें हमने स्नेह से “हीरो” कहकर पुकारते थे- अनिमय और मंजु को सम्मानित किया। इन दो युवाओं ने पिछले ४० दिनों से किसी भी मौसम, और किसी भी  समय में अलग-अलग राज्यों से गुजरते हुए बस चलाई, हमेशा सहयोग और विनम्रतापूर्वक व्यवहार किया और कभी भी शिकायत नहीं की। शायद हमारी बस ने भी उनके भद्र व्यवहार से प्रेरणा ली और ७ गंतव्य स्थल, ४० दिन और  ६०००  कि.मी. की यात्रा के दौरान कभी भी कोई समस्या नहीं आने दी। यात्रियों की ओर से उन दोनों को इस सराहनीय कार्य के लिए एक उदार राशि पुरस्कार रूप में दी गई।

 “ॐ नमः पार्वती पतये हर हर महादेव” की जयजयकार के साथ, हमारी बस माउंट आबू से कार्ला की ओर वापसी की यात्रा पर चल पड़ी। हम सुबह ९ बजे संत सरोवर से निकले और रात १२.३० बजे मुंबई पहुँचे, जहाँ हम में से कुछ यात्री बस से उतर गए। परम पूज्य स्वामीजी और उनके सेवकों के कार्ला पहुँचने के ठीक २० मिनट पश्चात्,  प्रात: काल ३ बजकर ४५  मिनट पर शेष यात्री कार्ला पहुँचे। सुबह ९.३० बजे, हमारे तीन सहयात्रियों के साथ हमारी बस रात में १ बजे शिराली मठ पहुँची। इस तरह हमारी उत्तर भारत की यात्रा संपन्न हुई - गुरु सान्निध्य में जीवन का एक अद्भुत, अद्वितीय अनुभव !

इस चिरस्मरणीय यात्रा के लिए, सभी यात्रियों की ओर से, मैं परम पूज्य स्वामीजी के चरणकमलों में अत्यंत विनम्रता से कोटि  कोटि प्रणाम समर्पित करता हूँ। यह केवल पूज्य स्वामीजी का ही स्नेह एवं अनुग्रह था जिसके कारण हमें अन्य सारस्वत बंधु- भगिनियों से मिलने का सुअवसर प्राप्त हुआ। विभिन्न पहरावे, खानपान, भाषाओं, संस्कृतियों को निकट से समझने का समय मिला। सेवा का दुर्लभ अवसर प्राप्त हुआ, कई सबक सीखे .... गुरु सान्निध्य के ४० दिनों के श्रेष्ठ अवसर प्रदान करने हेतु हम परम पूज्य स्वामीजी के सदैव ऋणी रहेंगे, कृतज्ञतापूर्वक धन्यवाद स्वामीजी ...


                    ।। ॐ नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव।। 
 

शुभकृत संवत्सर की समाप्ति पर हिंदू दिनदर्शिका के अंतिम हीने के महत्त्वपूर्ण दिवसों एवं उनके साथ जुड़े त्यौहारों पर श्रीमती सुधा उळ्ळाल प्रकाश डाल रही हैं।

 

।। श्री गुरुभ्यो नमः, श्री भवानीशङ्कराय नमः, श्री मात्रे नमः ।।

 

चांद्रमान दिनदर्शिका के अनुयायियों के लिए फाल्गुन मास, संवत्सर का बारवाँ हीना है। ग्रेगोरियन (इंग्लिश) कैलेंडर के अनुसार यह फरवरी अथवा मार्च हीने में आता है। इस मास में अनेक पूजायें की जाती हैं एवं उत्सव मनाए जाते हैं।   

 

  

शिराली में पुनर्प्रतिष्ठा          

परम पूज्य श्रीमत् कृष्णाश्रम स्वामीजी सन्निधि, शिराली
 

फाल्गुन मास की शुक्ल तृतीया पर परम पूज्य श्रीमत् कृष्णाश्रम स्वामीजी की समाधि की पुनर्प्रतिष्ठा शिराली में परम पूज्य श्रीमत् परिज्ञानाश्रम स्वामीजी (तृतीय) के दिव्य हस्तों से संपन्न हुई थी प्रतिवर्ष इस दिन इसी समाधि पर एकादश रुद्र स्नान पूजा की जाती है और विशेष नैवेद्य का अर्पण होता है। जब परम पूज्य श्रीमत् सद्योजात शङ्कराश्रम स्वामीजी शिराली में उपस्थित होते हैं, तब परम पूज्य स्वामीजी के करकमलों द्वारा पूजा होती है। शाम को अष्टावधान सेवा समर्पित की जाती है।

 

कार्ला में प्रतिष्ठा दिवस

श्री दुर्गापरमेश्वरी मंदिर - कार्ला
 

अगले शुभ दिन अर्थात् फाल्गुन शुक्ल पंचमी को, कार्ला में श्री दुर्गा परमेश्वरी देवी की प्रतिष्ठा का दिवस मनाया जाता है। विशेष पूजा और आराधना के पश्चात् संतर्पण सेवा अर्पण की जाती है। आसपास के स्थानों से अनेक भक्तजन और साधक उत्सव में सम्मिलित होते हैं।

 

कार्ला में वर्धंती उत्सव

संजीवनी समाधि, परम पूज्य श्रीमत् परिज्ञानाश्रम
स्वामीजी (तृतीय)कार्ला
 
 
फाल्गुन मास की शुक्ल दशमी पर, कार्ला में, परम पूज्य श्रीमत् परिज्ञानाश्रम स्वामीजी (तृतीय) की संजीवनी समाधि का वर्धंती दिवस मनाया जाता है इसी दिन सन् १९९३ में, पूज्य स्वामी श्री ईश्वरानंद गिरिजी महाराज द्वारा संजीवनी समाधि पर शिवलिंग की प्रतिष्ठा की गई थी।
 
 
 
शिष्य स्वीकार दिवस - मार्च प्रथम
 
 

संयोगवश इस वर्ष मार्च प्रथम को ही फाल्गुन शुक्ल दशमी तिथि भी पड़ी थी। संपूर्ण सारस्वत समाज के लिए यह एक और तिहासिक तथा पावन दिवस है, जब सन्  १९५९ में, फाल्गुन शुक्ल दशमी तिथि - मार्च की पहिली तारीख को, परम पूज्य आनंदाश्रम स्वामीजी ने ग्यारह वर्षीय बालक रवींद्र शुक्ल का शिवाजी पार्क मुंबई में एक भव्य समारोह में शिष्य-स्वीकार कर, उन्हें "परिज्ञानाश्रम" नाम से विभूषित किया था हजारों की संख्या में भक्तगण इस अविस्मरणीय उत्सव में भाग लेने हेतु एकत्रित हुए थे।

प्रतिवर्ष, कार्ला में ‘शिष्य स्वीकार उत्सव’ मनाने हेतु भक्तों एवं साधकों का भक्तिपूर्वक समागन होता है। श्री चित्रापुर मठ के अंतर्गत स्थापित अन्य शाखा मठों में भी यह उत्सव बड़ी श्रद्धा एवं उत्साह के साथ संपन्न होता है।  

 

विजय एकादशी

हमारे देश के कुछ प्रांतों में, फाल्गुन शुक्ल एकादशी को आमलक एकादशी अथवा विजय एकादशी इस उत्सव के रूप में भी मनाते हैं। आमला वृक्ष को हमारे धर्म में पावन मानते हैं क्योंकि यह माना जाता है कि भगवान विष्णु उसमें निवास करते हैं। इस दिन लोग पयोव्रत (उपवास) रखते हैं और स्वास्थ्य समृद्धि हेतु प्रार्थना करते हैं।

 

होली

फाल्गुन मास की पूर्णिमा को, भारत देश के अन्य प्रदेशों के साथ साथ, शिराली में भी बड़े उत्साह के साथ होली मनाई जाती है। शाम की पूजा संपन्न होने के पश्चात् तथा जन कल्याण की प्रार्थना करने के उपरांत, धुंधी राक्षसी के प्रतीक के तौर पर एक केले के पौधे को लकड़ी के गट्ठे के साथ जलाया जाता है। लकड़ी के ट्ठे इत्यादि को जलाना हमारी वासनाओं अथवा काम इत्यादि अनिष्ट वृत्तियों के दहन को दर्शाता है

होली के दूसरे दिन भारत के अधिकांश भाग में धूलिवंदन या धूलेटी मनाई जाती है। सौहार्दपूर्ण वातावरण में, युवा और वृद्ध दोनों आपसी मतभेद और बैर को भूलकर एक दूसरे का रंगों के साथ अभिनंदन करते हैं। वृंदावन, नंदगाँव,

 

वर्धंती, उमामहेश्वर मंदिर – श्री समाधि मठ, मंगलूरु

श्री उमामहेश्वर सन्निधि - मंगलूरु

 

फाल्गुन मास की कृष्णपक्ष पंचमी पर, श्री चित्रापुर मठ के अन्तर्गत मंगलूरु के श्री समाधि मठ में स्थित श्री उमामहेश्वर सन्निधि की र्धंती मनाई जाती है। यह मंदिर सारस्वतों के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। वास्तविक र्धंती के दिन पहले १०८ नारियलों के होम के साथ यह उत्सव प्रारंभ होता है। दिवसीय महारुद्र भी इसी दिन प्रारंभ होता है। ठे दिन चंडिका होम संपन्न होता है। उसी शाम १०८ कलशों की स्थापना की जाती है। सातवें दिन की सुबह को अभिषेक तथा विशेष पूजा के पश्चात् संतर्पण किया जाता है। शाम को रंगपूजा, अष्टावधान सेवा और दीपोत्सव संपन्न होते हैं।

 

वर्धंती, श्री उमामहेश्वर सन्निधि – श्री भंडीकेरी मठ, गोकर्ण

श्री उमामहेश्वर सन्निधि - गोकर्ण            

 

गोकर्ण क्षेत्र के हमारे दिव्य दिमठ - श्री भंडीकेरी मठ में, फाल्गुन मास की कृष्णपक्ष षष्ठी पर, श्री उमामहेश्वर सन्निधि की र्धंती मनाई जाती है। काकड़ा और शेवंती के फूलों के तोरणों से सजाया गया मठ, उत्सव के समय और अधिक खिल उठता है। पुष्प अलंकार, पंचामृत रुद्राभिषेक सेवायें अर्पण की जाती हैं और "पंचभक्ष परमान्न" नैवेद्य चढ़ाया जाता है। रात्रि में दीपराधना पूजा की जाती है तथा उसके पश्चात् प्रसाद वितरण होता है।

 

फाल्गुन मास के अन्य महत्त्वपूर्ण दिवस

ऐसा माना जाता है कि धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म फाल्गुन बहुला अष्टमी को, तथा भीमसेन का जन्म फाल्गुन शुद्ध त्रयोदशी को हुआ था

फाल्गुन मास संवत्सर के अंतिम चरण और नए संवत्सर के आरंभ की घोषणा करता है। यद्यपि इस हीने की ऋतु शिशिर है, किंतु वास्तव में यह शीत ऋतु का ग्रीष्म में क्रमशः परिवर्तन होने का काल है, अतः  सामान्यतः मौसम सुहावना रहता है।

 

संदर्भ और आभार सूची

वेद हल्दीपुर नागेश भट्टमाम

वेद रविकिरण भट्टमाम - गोकर्ण

वेद उप्पोणी गुरु भट्टमाम

श्री चित्रापुर मठ दिनदर्शिका, शुभकृत संवत्सर

उत्सव, मठ प्रकाशन

https//www.hindupad.com
https//www.thedivineindia.com
https//www.drikpanchang.com
https//www.abplive.com/lifestyle/religion
छायाचित्रश्री चित्रापुर मठ वेबसाइट और वंतिगा दाताओं की निर्देशिका २०१५-१९

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सुभाष मडिमण माम के जीवन की एक चिरस्मरणीय घटना - जिसके स्मरण मात्र से वे स्वयं को अत्यंत धन्य और भाग्यवान् मानते हैं, हमारे साथ साझा कर रही हैं, कुशल बैलू पाच्ची...

 पालनाद्दुरितच्छेदात् कामितार्थप्रपूरणात् ।

 पादुकामन्त्रशब्दार्थं विमृशन् मूर्ध्नि पूजयेत् ।।

श्री गुरुपादुका स्तोत्रम्”, पर स्वाध्याय करते समय, परम पूज्य श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी ने उपरोक्त श्लोक की व्याख्या इस प्रकार की है :

पादुका” इसे हमारी गुरुपरंपरा का उदात्त प्रतीक माना जा सकता है, जिसका श्रद्धापूर्वक ध्यान करने से वे हमारा संरक्षण और पोषण करती हैं...  पा से पालनात्हमारे आध्यात्मिक पथ पर आने वाली बाधाओं को दूर करती हैं ... दु से दुरितच्छेदात्और हमारी उचित इच्छाओं की पूर्ति करती हैं, जिससे कि हम अपनी साधना के पथ पर तेजी से आगे बढ़ सकें ...  का से कामितार्थप्रपूरणात्हमारे समाज के लिए, हमारी

गुरुपरंपरा के पूज्य गुरुवर्यों की पादुकाएँ, व्यक्ति और शक्ति दोनों स्वरूप में, अत्यंत प्रेम, सम्मान और भक्ति-भाव के साथ पूजनीय हैं। सीलिए सुभाष मडिमण माम और उनके बंधुविजय माम के लिए वास्तव में यह भूरि भूरि आशीर्वाद ही था जब उन्हें परम पूज्य श्रीमद् आनन्दाश्रम स्वामीजी की दिव्य पादुकाएँ, शुक्रवार  जनवरी सन् २०२३ को शिराली में परम पूज्य श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी को समर्पित करने का दुर्लभ अवसर प्राप्त हुआअपने परम गुरु की पादुकाओं को प्राप्त करने पर, पूज्य स्वामीजी के मुखारविंद पर प्रकट अपार हर्ष का दृश्य आज भी मडिमण बंधुओं के हृदय में स्थायी रूप से अंकित है।


सुभाष माम और विजय माम, परम पूज्य स्वामीजी को दिव्य पादुकाएँ समर्पित करते हुए

 दोनों बंधुओं के लिए यह एक मिश्रित भावनाओं का क्षण था; स्वामीजी द्वारा पादुकाओं की स्वीकृति के लिए वे स्वामीजी के प्रति अतीव कृतज्ञ थे क्योंकि अब वे आश्वस्त थे कि जिन पादुकाओं को उनके परिवार ने साठ वर्षों तक इतने प्यार और श्रद्धा से पूजा था, वे अब अपने उचित स्थान पर पहुँच यीं थीं जहाँ उनकी भक्ति भाव से निरंतर पूजा होती रहेगी किंतु साथ ही उन्हें अपने पूजा स्थान में उन पादुकाओं की अनुपस्थिति का अनुभव हुआ जहाँ पर उन्होंने पादुकाओं को अपने कुलदेवता - श्री शांतादुर्गा और श्री मंगेश के छायाचित्रों के निकट एक अभिलषित स्थान प्रदान किया थापरम पूज्य स्वामीजी ने उनकी चिंताओं का शमन करते हुए उन्हें समझाया कि जिस तरह से उन्होंने पादुकाओं की  देखभाल और पूजा की थी, इसका अनुभव होते ही अब वे सहज ही उनके जीवन का एक हिस्सा बन चुकी हैं। हाल ही में तिरुवन्नमलई में संचालित, “श्री गुरुपादुका स्तोत्रम्पर स्वाध्याय का उल्लेख करते हुए, परम पूज्य स्वामीजी ने उन्हें पादुकाओं की सहस्रार चक्र में कल्पना करते हुए उन पर ध्यान करने की प्रक्रिया समझायी और यह भी आश्वासन दिया कि इस मानस प्रक्रिया को करने से संपूर्ण गुरुपरंपरा की उपस्थिति का अनुभव हो जाता है सुभाष माम कहते हैं कि यह उनके लिए एक रहस्योद्घाटन था - कि भक्तिपूर्वक गुरु-स्मरण करना उतना ही लाभदायक है जितनी कि गुरु की भौतिक उपस्थिति। परम पूज्य स्वामीजी का यह आश्वासन कि गुरुपरंपरा  का आशीर्वाद सदैव उनके परिवार पर बना रहेगा, दोनों बंधुओं के लिए घर में पादुकाओं की भौतिक अनुपस्थिति से उभरने  हेतु शक्ति का आधार स्तंभ बन गया

मडिमण परिवार का हमारे मठ और हमारी गुरु परंपरा के साथ संबंध

सुभाष माम के पिता, स्वर्गीय श्री नारायण सुंदर राव मडिमण, हमारे चित्रापुर सारस्वत समाज के एक सक्रिय सदस्य थेवे  चित्रापुर मठ संस्थान केस्टैंडिंग कमेटी” (Standing Committee) नामक समिति के सदस्य थे और अन्य समान विचारधारा रखनेवाले सदस्यों के साथ मिलकर, उन्होंने सन् १९४० में मुंबई में बांद्रा स्थानीय सभा की स्थापना की। सन् १९५१-५२ में परम पूज्य श्रीमद् आनंदाश्रम स्वामीजी की सर्वप्रथम आधिकारिक यात्रा के समय, बांद्रा में किसी दूसरे उपयुक्त निवास स्थान के अभाव के कारण, परम पूज्य स्वामीजी और उनके सेवकों का, मडिमण परिवार ने अपने ही घर में अत्यंत आदर से अतिथि सत्कार किया थाउनके प्रांगण में ही अनेक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता था सुभाष माम तब आठ साल के बालक थे और अपने घर से पंडाल तक हाथ में दंड और चवरी (चँवर/ चामर) पकड़कर परम पूज्य स्वामीजी के साथ चलने का सुखद अनुभव वे साझा करते हैं

(बायें से दायें: परम पूज्य श्रीमद् आनंदाश्रम स्वामीजी की सर्वप्रथम आधिकारिक यात्रा पर बांद्रा में आगमन; बांद्रा स्थानीय सभा के अध्यक्ष के रूप में, नारायण माम, परम पूज्य स्वामीजी का स्वागत करते हुए; परम पूज्य स्वामीजी  की बांद्रा की प्रथम यात्रा के अंतर्गत, सेवा में नियुक्त स्वयंसेवक सुभाष माम परम पूज्य स्वामीजी के पीछे खड़े दिखाई दे रहे हैं)

 

सुभाष माम अपने परिवार के वरिष्ठ सदस्यों से सुनी हुई बातें याद करते हुए कहते  हैं कि सन् १९५७-५८  के आसपास समाज के सदस्यों की इच्छा थी कि परम पूज्य श्रीमद् आनंदाश्रम स्वामीजी शिष्य - स्वीकार करें; परंतु परम पूज्य स्वामीजी इसके लिए अनिच्छुक थे, क्योंकि मठ के मामलों में समाज के लोगों के मन में एक शुष्कता-सी आयी हुई थी। तथापि समाज के सदस्यों की निरंतर विनति पर, स्वामीजी ने शिष्य स्वीकार करने की उनकी प्रार्थना को स्वीकार किया। सुभाष माम याद करते हुए कहते हैं कि उनके पिता, “स्टेंडिंग कमेटी”  के सदस्य होने के कारण, श्रीमद् आनंदाश्रम स्वामीजी का अंतिम अनुमोदन प्राप्त करने हेतु तरुण रवींद्र शुक्ल को बंगलूरु मठ में स्वामीजी से मिलवाने के लिये ले गये थे।

 

सुभाष माम स्वयं को भाग्यशाली समझते हैं कि मुंबई लौटने पर, अपने पिता एवं भावी शिष्यस्वामीजी को रेलवे स्टेशन से बांद्रा में उनके घर लाने का अवसर उन्हें प्राप्त हुआ मडिमण परिवार के सदस्यों के साथ अल्पाहार करने के पश्चात्, भावी शिष्यस्वामीजी रवींद्र शुक्ल को पुनः उनके घर वाकोला तक पहुँचाने का उत्तरदायित्व भी सुभाष माम को ही सौंपा गया था  

तत्पश्चात्, SSC की महत्त्वपूर्ण परीक्षा निकट होते हुए भी, सुभाष माम ने स्वयंसेवक के रुप में सन् १९५९ के शिष्यस्वीकार समारोह में बड़ी ही सक्रियता एवं उत्साह से भाग लिया। उन्हें स्मरण है कि वे इस विचार से अत्यंत अभिभूत हो जाते थे कि  इतने युवा शिष्य, भविष्य काल में मठाधिपति बनकर एक भव्य समाज का नेतृत्व करने के उत्तराधिकारी बनने जा रहे हैं  

सन् १९६१ में, नारायण माम नौकरी के सिलसिले में अपने परिवार के साथ, बांद्रा से मुंबई के अन्य एक भाग - “मलबार हिलनामक स्थान में निवास करने चले गए इसके पश्चात, सन् १९६२-६३  के आसपासस्टेंडिंग कमेटी”  ने नारायण माम के निवास स्थान को परम पूज्य श्रीमद् आनंदाश्रम स्वामीजी के विश्राम और चिकित्सकीय परामर्श के लिए उपयुक्त निर्दिष्ट स्थान बना दिया। इस यात्रा के दौरान, सुभाषमाम को शिष्य स्वामीजी के साथ बिताए हुए क्षणों की अद्भुत स्मृतियाँ हैं... वे अक्सर उन्हें पुकारते थे, “अरे सुभाष ! यो, गप्पे मार्या।”( जाओ सुभाष, थोड़ी गपशप करते हैं! )

सुभाषमाम की माँ, शांतापाच्ची, जो एक मृदुभाषीय, संवेदनशील और परम पूज्य श्रीमद् आनंदाश्रम स्वामीजी  की परम भक्त थीं, इ यात्रा के दौरान उन्होंने स्वामीजी की पादुकाओं को प्रसाद रुप में पाने की उनसे प्रार्थना की।  मडिमण परिवार अत्यंत आनंदित हो उठा, जब परम पूज्य स्वामीजी ने उनकी इस प्रार्थना को स्वीकारा। पादुकाओं के ऊपर तुरंत ही चाँदी का आवरण चढ़ाया गया और उन्हें पूजास्थान में उनके कुल देवताओं के साथ स्थापित किया गया। और तब से मडिमण परिवार नित्य सुबह-शाम पादुका की श्रद्धापूर्वक पूजा और अर्चना करने लगे थे।

मडिमण परिवार को आशीर्वाद सहित भेंट की हुई परम पूज्य श्रीमद् आनंदाश्रम स्वामीजी की पावन पादुका

 

तत्पश्चात् जब उनका परिवार पुणे में स्थानांतरित हुआ, तब कई अवसरों पर, परम पूज्य श्रीमद् आनंदाश्रम स्वामीजी, शिष्य स्वामीजी सहित नारायण माम के घर विश्राम करने के पश्चात् ही दूसरे दिन मुंबई की आधिकारिक यात्रा के लिये प्रस्थान करते थे।

मडिमण परिवार के पुणे के निवासस्थान में परम पूज्य श्रीमद् आनन्दाश्रम स्वामीजी और परम पूज्य शिष्य स्वामीजी

मडिमण परिवार का, हमारी गुरुपरंपरा के साथ विशेष मधुर संबंध बना रहा जब परम पूज्य श्रीमत्   सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी ने सन् १९९९-२००० के आसपास, उनके घर में आगमन कर उन्हें आशीर्वादित किया

सुभामाम उस दिन को याद करते हुए कहते हैं कि परम पूज्य  श्रीमत्   सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी ने एकांत में उस कमरे में कुछ समय बिताया जहाँ दिव्य पादुकाओं की पूजा होती थी। कुछ समय पश्चात् जब उनका परिवार स्वामीजी के सम्मुख गया, तब उन्हें स्वामीजी के मुखारविंद पर एक अनोखी प्रशांत मुस्कान दिखाई दी।

मडिमण परिवार के पुणे के निवासस्थान में परम पूज्य श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी

 

दिव्यता से संजात एक जीवन

अब ८० वर्ष की आयु के सुभाष माम, स्वयं और अपने परिवार के जीवन का सिंहावलोकन करते हुए कहते हैं कि उनके परिवार को एक दिव्य शक्ति का  सदैव  मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है उन्हें यह दृढ़ विश्वास है कि यह दिव्य क्षण केवल परम पूज्य श्रीमद् आनंदाश्रम स्वामीजी की दिव्य पादुका और उनके कुलदेवता के आशीर्वाद से ही प्राप्त हुआ पिताजी का आत्मबल और आत्मविश्वास, माताजी का परम पूज्य श्रीमद् आनंदाश्रम स्वामीजी की पादुका के सम्मुख परेशानियों के समाधान पाने हेतु की गई प्रार्थना और उसके पश्चात् उनकी माँ के मन को शांति प्राप्त होना तथा उनके माता-पिता का आखिरी साँस तक स्वस्थ रहना, ये सब परम पूज्य श्रीमद् आनन्दाश्रम स्वामीजी की पादुकाओं द्वारा प्राप्त संरक्षण से ही सदैव संभव हुआ था - ऐसा सुभाष माम का मानना है

 स्वयं के जीवन में भी, वे आश्चर्य प्रकट करते हैं, कि परम पूज्य श्रीमद् आनंदाश्रम स्वामीजी की यात्राओं  के दौरान चारों भाई-बहनों में से हमेशा केवल उन्हें ही माता-पिता के साथ घर पर रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जबकि अन्य भाई बहन पुणे में ही रहते थे। वे आगे बताते हैं कि उनकी शैक्षणिक गतिविधियों में, व्यवसाय के विकल्प और विकास में और यहाँ तक उनके जीवन की अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं में ...  इन सभी में उन्हें एक दिव्य शक्ति की उपस्थिति का अनुभव हुआ है एक मनभावन उदाहरण उद्धृत करते हुए वे कहते हैं कि अपने चाचा से प्रेरित होकर, सुभाषमाम सेना दल में प्रवेश लेने के लिए बहुत उत्सुक थे। महाराष्ट्र से NCC  में सर्वश्रेष्ठ निशानेबाजों में से वे एक थे (कश्मीर में एक शिविर के लिए केवल दो कैडेट चुने गए थेजिनमें से एक सुभाष माम थे) और मुंबई में NCC  परेड का नेतृत्व वे ही कर रहे थे, परंतु तीन बार चयन के अंतिम दौर तक पहुँचने के उपरांत भी हताश कर देने वाली अस्वीकृतियों का उन्हें सामना करना पड़ा था इसके पश्चात् उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक्स (Electronics)  के साथ फिज़िक्स (Physics) में स्नातकोत्तर शिक्षा (मास्टर्स/ Masters) करने) का निर्णय लिया क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक्स  (Electronics) में उनकी अत्यंत रुचि थी। वे जब पाठ्यक्रम के अंतिम चरम पर पहुँच रहे थे, उसी समय अपने व्यवसाय में आगे बढ़ने के बारे में वे अनिश्चितता महसूस करने लगे थे, परंतु उसी समय उनके पिता के एक सुझाव के कारण उनके जीवन में मंगल घटनाओं की ऐसी श्रृंखला प्रकट हुई, जिसके फलस्वरूप उन्हें कोलकत्ता के प्रतिष्ठित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मैनमेंट (Indian Institute of Management) में प्रवेश प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् ईश्वर कृपा से उन्होंने अपने व्यवसाय में उत्कृष्ट विकास और प्रगति की।

सुभाष माम के शब्दों में, "सेना में भर्ती  होने के मेरे सपनों का क्या हुआ ? जब मैं तीनों बार असफल हुआ तब मैं बहुत रोया- मैं इतना निराश था कि मुझे ऐसे लगा जैसे मेरी दुनिया ही खत्म हो गई, सर पर आसमान टूट पड़ाऔर फिर, इतने अनियोजित और आकस्मिक तरीके से IIM कलकत्ता में प्रवेश पाना, वह भी उस समय जब पोस्ट-ग्रेजुएशन फाइनल का तनाव था ; प्रतिस्पर्धा के नियम भी कठिन थे और फिर मेरा व्यवसाय ... मुझे विश्वास है कि ये सब मैंने केवल अपने बल पर प्राप्त नहीं किया है।  जो कुछ हो रहा था वह सब मेरी समझ के परे था अब मैं बड़े विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि मैं बहुत धन्य  हूँ  क्योंकि ये सब परम पूज्य श्रीमद् आनंदाश्रम स्वामीजी के आशीर्वाद से ही मुझे प्राप्त हुआ है मेरे लिए वेआनंदकी मूर्ति थे जो शांति और आत्मसंयम के रूप में व्यक्त हो रहे थे ; और जब भी मैं उन्हें देखता, मुझे लगता कि अब मुझे किसी और वस्तु की इच्छा नहीं - मैं केवल उन्हें देखते ही रहना चाहता था।

ये शब्द परम पूज्य श्रीमत्  सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी के आशीर्वचन में प्रतिध्वनित होते हैं कि हमें गुरु सान्निध्य के विषय में निरंतर जागरूक रहना चाहिए, जो सदैव हमारे जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव, निर्णयात्मक क्षण, उपलब्धियाँ आदि में हमारा सतत मार्गदर्शन करते हैं परम पूज्य स्वामीजी हमें आश्वस्त करते हैं कि यह अनुस्मरण, केवल शिष्य के पुरुषार्थ और गुरु की कृपा से ही संभव हो सकता है।

परम पूज्य स्वामीजी को दिव्य पादुकायें समर्पित करते समय, उन्होंने उल्लेख किया कि सन् २००७ में परम पूज्य सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी ने कहा था कि परम पूज्य श्रीमद् आनंदाश्रम स्वामीजी भविष्य में किसी किसी रूप में शिराली निश्चित आएँगे। क्या यह मात्र संयोग है कि इन पादुकाओं का आगमन शिराली में उस समय हुआ, जब हमश्री गुरुज्योति पदयात्राके समय परम पूज्य श्रीमत् परिज्ञानाश्रम स्वामीजी (तृतीय) की पादुकाओं को शिराली ले कर आए थे! एवं अब हम उस अपूर्व पदयात्रा के १५ वर्ष पूरे होने की चौखट पर खड़े हैं ... शायद यह हमारे परमेष्ठी गुरु का ही प्रसाद है, जो उनके आनंद और संतोष का प्रतीक है!

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लेखिका - श्रीमती बीना सवकुर 
हिंदी रूपांतर - अनुवाद समिति 

 

पावन माघ महीने में कुछ आडंबरहीन तो कुछ उत्सवपूर्ण त्यौहार हैं पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध की ओर सूर्य की गति, प्रतिवर्ष के ग्यारहवें मास में आरंभ होती हैयह माघ मास ग्रेगोरियन अथवा अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार जनवरी - फरवरी हीनों से संबंधित है।

माघ मास अनेक शुभ कार्यों के लिये पवित्र माना जाता है जैसे - विवाह, ब्रह्मोपदेश (जनेऊ), गृह-प्रवेश इत्यादि। जिस प्रकार कार्तिक मास में दीप-प्रज्वलन शुभ माना जाता है, उसी प्रकार माघी -स्नान (पवित्र नदियों में डुबकी लगाना) माघ मास का प्रमुख विधान है इस कालावधि में लोग सूर्योदय से पूर्व, विशेषकर अरुणोदय काल में, तीर्थ क्षेत्र की पावन नदी या तालाब में स्नान करते हैं। इस माघी स्नान के पश्चात् भगवान माधव एवं सूर्यदेव को विशेष अर्घ्य अर्पण किया जाता है।

माघी स्नान का महत्व :

माघ मास के पूर्व, शीत ऋतु की प्रतिकूल ठंड के प्रभाव से कुछ लोग शारीरि दर्द और कमजोरी का अनुभव करते हैं। इस मास में सूर्य की तीव्र किरणों तथा लवणयुक्त शोधक समुद्री जल की वैद्यकीय उपयोगिता के कारण ही, संभवतः  षि -मुनियों ने शुद्धिकरण हेतु समुद्रीय खारे जल में एक ड़ी अर्थात् ४८ मिनट के लिए समुद्रस्नान की सलाह दी है। इससे शरीर को शुद्धीकरण एवं नई ऊर्जा का लाभ मिलता है

माघ मास के धार्मिक समारोह :

माघ हीने में अनेक धार्मिक समारोह मनाये जाते हैं - कुछ सादगी से और कुछ धूम-धाम से

 

गणेश जयंती :

 

वस्तुतः  भगवान गणेश का जन्मदिन, गणेश जयंती, तिलकुंड चतुर्थी या वरद चतुर्थी के नाम से भी  जाना जाता है। इस सुदिन, बुद्धिदाता गणेश भगवान का जन्मदिन मनाया जाता है जो कि विशेषतः  महाराष्ट्र और गोवा राज्यों में लोकप्रिय हैयह माघ हीने में शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता हैइस अवसर पर भक्तगण हलदी अथवा सिंदूर से भगवान गणेश की मूर्ति बनाते हैं। पूजा अर्चना के पश्चात् मूर्ति का जल में विसर्जन किया जाता है। भक्तगण व्रत का आचरण एवं पूजा इत्यादि करते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस शुभ दिन पर गणेशजी की प्रार्थना करने से सारी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं  और आगामी वर्ष शांति, समृद्धि से संपन्न होता है

माघी नवरात्रि :

लोकप्रिय शारदीय और चैत्र-नवरात्रियों के अतिरिक्त कुछ साधक अन्य दो गुप्त नवरात्रियों - माघी और आषाढ़ी गुप्त नवरात्रि को भी ड़ी उमंग और ठाट-बाट से मनाते हैं। इन दो नवरात्रियों में तांत्रिक साधना के अनुयायी गुप्त विधानों सहित देवी की दश-महाविद्याओं की पूजा करते हैं इसलिए इन्हें गुप्त नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है। माघ मास के शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से लेकर नवमी तक माघी गुप्त नवरात्रि का नौ दिवसीय पर्व देवी माता के नौ शक्ति रूपों की उपासना के लिए है  शारदीय नवरात्रि में यदि किसी कारणवश कोई परिवार घटस्थापना के दिन किया हुआ संकल्प पूर्ण  नहीं कर पाता, तब यह व्रत माघ हीने में पूरा किया जा सकता है। उसी भांति, यदि कोई सुमंगली भाद्रपद तृतीया (तयि) के दिन गौरी-पूजा (वायण) हीं कर पाती है, तो माघी नवरात्रि में अपना व्रत संपन्न कर सकती है

माघ शुक्ल तृतीया :

श्री चित्रापु मठ में माघ शुक्ल तृतीया को परम पूज्य श्रीमत् शंकराश्रम स्वामीजी (द्वितीय) का समाराधना दिवस, गुरु-मठ मल्लापु गाँ में स्थित परम पूज्य स्वामीजी की दिव्य सन्निधि में मनाया जाता है।

वसंत पंचमी :

मास की शुक्ल पक्ष पंचमी को वसंत पंचमी या श्रीपंचमी कहते हैं जो वसंत ऋतु का पहला दिन होता है। कहा जाता है कि यह सुदिन अक्षर, विद्या, ज्ञान और प्रज्ञान की दिव्य अधिष्ठात्री सरस्वती देवी का जन्मदिवस भी है।

इसी कारण वाक् देवी को समर्पित यह दिन, अक्षर-अभ्यास के प्रारंभ हेतु पावन माना जाता है

माघ मास में निष्क्रियता, आलस्य, अज्ञान से मुक्ति पाने के लिए सरस्वती देवी की आराधना करते हैंपरंपरानुसार, यजमा ब्राह्मणों को अपने घर पर आमंत्रित कर, उनको विशेष भोजन का सेवन कराते हैं। इस दिन पितृ-तर्पण भी करते हैं। कुछ उपासक कामदेव की भी पूजा करते हैं। कई शिक्षण संस्थानों में सरस्वती देवी का विशेष पूजन आयोजित किया जाता है।

इस पूजा में उपयोगी  सामग्री में पीले रंग का विशेष महत्त्व होता है, क्योंकि यह रंग ज्ञान, समझदारी, समृद्धि, आशावाद, उर्जा और सकारात्मकता का प्रतीक माना जाता है

सरस्वती देवी की प्रतिमाओं को पीले रंग की वस्तुओं से - जैसे पीले वस्त्र, पीले फूल, इत्यादि से सुशोभित करते हैं। उपासक भी पीले वस्त्र पहनकर, पीले रंग के स्वादिष्ट व्यंजनों का सरस्वती देवी को भोग ढ़ाते हैं

 

रथसप्तमी :

सप्तमी तिथि, चंद्रमा की मासिक गति पर आधारित कैलेंडर के मास की शुक्लपक्ष कृष्णपक्ष का सातवाँ दिन है। यह मान्यता है कि रथ सप्तमी, कश्यप ऋषि और उनकी पत्नी दिति के सुपुत्र - सूर्यदेव की वर्षगांठ है। इस दिन सूर्य देव पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध की ओर प्रयाण करते हैं और मकर संक्रमण (संक्रांति ) के दिन उनका मकर राशि में प्रवेश होता है  

लोकप्रिय आस्था के अनुसार, इस दिन सूर्यदेव के सात घोड़ोंवाले रथ को उनके रथसारथी अरुण, दक्षिण दिशा से पुनः  ईशान्य दिशा की ओर मोड़ते हैं, तभी वसंत ऋतु का आगमन घोषित होता है  कहा जाता है कि सूर्यदेव के रथ का एक ही पहिया है जो कालचक्र या संवत्सर को दर्शाता हैरथ को खींचने वाले सात घोड़े, प्रकाश के सात रंगों का संकेत देते हैं अथवा वे सप्ताह के सात दिनों के प्रतीक भी माने जाते हैंज्योतिषशास्त्र के अनुसार सूर्यदेव प्रत्येक राशि में एक महिने के लिए विराम करते हैं और १२ राशियों का एक संपूर्ण आवर्तन ३६५ दिनों या १२ महिनों में पूर्ण होता है

प्रचलित प्रथा के अनुसार रथ सप्तमी के दिन लोग अर्क के सात पत्तों से अभ्यंग स्नान करते हैं। वे स्नान के समय अर्क का एक पत्ता अपने सिर पर, दो पत्ते कंधों पर, दो पत्ते अपने घुटनों पर

और दो पत्ते अपने पैरों पर रखते हैं

अर्क को तेलगू भाषा में जिल्लेडु, कन्नडा में एक्का, तमिळ में एरुक्कु और अंग्रेजी में केलोट्रोप (बोस्ट्रिंग हेम्प) कहते हैं।

परंपरानुसार, चित्रापु सारस्वत अपने घरों में सुपारी के वृक्ष के तने (पोइंयाँ) से दिया बनाकर आँगन के तुलसी वृंदावन के समीप रखकर उसमें दीप प्रज्वलित करते हैं प्रज्वलित दीप अर्क के पत्तों पर भी स्थापित कर तर्पण करते हुए किसी जलाशय में विसर्जित करते हैं

रथ सप्तमी चित्रापु सारस्वत समाज के लिए गुरुप्राप्ति दिवस होने के कारण भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैइसी दिन चित्रापु सारस्वत समाज के प्रथम गुरु श्रीमत् परिज्ञानाश्रम स्वामीजी (प्रथम) गोकर्ण गाँव के पूर्वजों की कठिन तपश्चर्या और अनुष्ठान के फलस्वरूप कोटितीर्थ नाम सरोवर के किनारे पधारे थे इस माघ मास की सप्तमी तिथि को हमारे गोकर्ण और शिराली मठ में विशेष सेवाएँ  अर्पण की जाती हैं

भीष्माष्टमी :

 

भारत के भिन्न प्रांतों में माघ मास के अनेक दिन भीष्म को समर्पित हैं  - भीष्माष्टमी, भीष्म द्वादशी, भीष्म एकादशी ये प्रमुख हैं। भीष्माष्टमी का उत्सव, ऐतिहासिक महाकाव्य महाभारत के सर्वाधिक श्रद्धेय पात्र भीष्म पितामह से संबंधित है। इस सुदिन को भीष्म पितामह निर्वाण को प्राप्त हुए थे।  इसके प्रतीक स्वरूप माघ मास में, रथ सप्तमी के ठीक एक दिन बाद, शुक्ल पक्ष की अष्टमी को भीष्माष्टमी कहते हैं।

लोकप्रिय विश्वा है कि इसी मास में महाभारत के युद्ध के पश्चात्, बाणों की शय्या पर लेटे हुए भीष्म-पितामह ने, भगवान विष्णु के अवतार - श्री कृष्ण की उपस्थिति में पांडवों के लिए विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र को उजागर किया था

वर्धंती उत्सव :

माघ शुक्ल नवमी पर श्री चित्रापु मठ में श्रीवल्ली भुवनेश्वरी देवी सन्निधि, श्री महागणपति सन्निधि, श्रीमद् आदिशंकराचार्य सन्निधि, श्रीमत् परिज्ञानाश्रम (तृतीय) गुरुपादुका सन्निधि तथा श्री रामांजनेय सन्निधि की वर्धंती तथा श्री क्षेत्रपाल सन्निधि, ये सभी पावन उत्सव साधक मिलजुलकर श्रद्धाभाव से मनाते हैंइस अवसर पर पंचश्रीफल-गणहोम सेवा श्री महागणपति को और कला-अभिवृद्धि के लिए द्वादश कलश सेवा श्रीवल्ली भुवनेश्वरी देवी को समर्पित की जाती है।

माघ शुक्ल त्रयोदशी :

इस दिन, मंगलूरु शहर में स्थित, श्री उमा-महेश्वर देवस्थान में श्री सुब्रह्मण्यम् सन्निधि की वर्धंती मनाते हैं

माघ पूर्णिमा :

माघ मास की पूर्णिमा पर महा-माघी उत्सव होता है, जो माघी स्नान का अंतिम दिन है लोगों का विश्वास है कि इस पावन दिन पर की गई प्रार्थना, उपासना, दान, अनुष्ठान जैसे पुण्य कर्मों के फलस्वरूप भक्त की आध्यात्मिक उन्नति होती है।

माघ कृष्ण तृतीया :

इस दिन मंगलूरु शहर में श्री चित्रापु मठ में स्थित श्री वेणुगोपाल सन्निधी की वर्धंती मनाई जाती है

माघ कृष्ण पंचमी :

चित्रापु सारस्वत समाज के लिए माघ कृष्ण पंचमी अत्यंत महत्त्वपूर्ण और विशेष हैइस दिन श्री चित्रापुर मठ के मठाधिपति परम पूज्य श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी के पट्टाभिषे दिवस की वर्धंती मनाते हैं २७ फरवरी १९९७ के दिन, श्री शृंगेरी पीठाधी - यतिवर जगद्गुरू शंकराचार्य और परम पूज्य नारायणाश्रम स्वामीजी की पावन उपस्थिति में, परम पूज्य श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी श्री चित्रापु मठ के ग्यारहवें मठाधीश पद पर प्रतिष्ठित किये गए सभी सारस्वत साधक सम्मिलित होकर इस महत्त्वपूर्ण दिवस पर ड़े प्रेम और भक्तिभाव से श्री गुरु-पादुका-पूजन और श्री भिक्षा सेवा श्रद्धेय गुरु को समर्पित करते हैं और उनकी अमृतवाणी से आशीर्वचन सुनने की उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं।

माघ कृष्ण षष्ठी :

श्री चित्रापु मठ - शिराली में, माघ मास के कृष्ण पक्ष के छठवें दिवस पर परम पूज्य श्रीमत्  शंकराश्रम स्वामीजी (प्रथम) सन्निधि और परम पूज्य श्रीमत् केशवाश्रम स्वामीजी सन्निधि की वर्धंती पर विशिष्ट पूजायें अर्पण की जाती हैं।

महाशिवरात्रि :

माघ मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी की रात्रि से चतुर्दशी के भोर तक भगवान शिव को समर्पित, महाशिवरात्रि का पूजन और अनुष्ठान किया जाता है। इस शिवोपासना से आध्यात्मिक उन्नति अतीव शीघ्र होती है, ऐसा साधकों का अनुभव हैमहाशिवरात्रि के दिन शिव मंदिरों में विशेष महोत्सव मनाये जाते हैं जहाँ लाखों श्रद्धालु, मिलकर कृपासागर तथा पापविध्वंसक शिवजी की भक्ति और श्रद्धा से आराधना, अनुष्ठान तथा ध्यान करते हैं

चित्रापु सारस्वत महाशिवरात्रि पर पूज्य स्वामीजी द्वारा आचरित शिव-पूजन में सम्मिलित होने के लिए सदैव आतुर रहते हैं शिराली मठ में श्री भवानीशंकर की प्रतिमा मुख्य सभागृह में स्थापित कर परम पूज्य स्वामीजी द्वारा चारयाम पूजा अर्पित की जाती हैयह चार-याम पूजा रात्रि के दस बजे आरंभ होती है एवं प्रातः  छह बजे इसका समापन होता है। इसके उपरांत परम पूज्य स्वामीजी उपस्थित सभी साधकों को तीर्थ वितरण करते हैं

महत्त्वपूर्ण धार्मिक हीना होने के अतिरिक्त माघ मास, वसंत ऋतु के आरंभ का संकेत भी देता है, जब प्रकृति पुनः  चारों ओर नूतन पुष्प-पर्णों से सुसज्जित होती है। वर्ष की इस महत्त्वपूर्ण मासावधि के पावन अनुभवों का आनंद लेने के लिये लोग उत्साहपूर्वक प्रतीक्षा करते हैं।

(संदर्भ : श्री केशव सोरा; उत्सव - परिज्ञान पब्लिकेशन; श्री चित्रापु मठ कैलेंडर विक्कीपीडिया ; इंडियनमंदिर्स.ब्लॉगस्पॉट.कॉम; हिंदुपेड.कॉम )

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लेख (आँग्ल भाषा) - श्री कृष्णानंद मंकीकर   

हिंदी भाषांतर - अनुवाद समिति

दीपावली का पर्व हमने कुछ ही दिन पहले मनाया था - दीपों का त्यौहार जो आशा और उज्ज्वलता का प्रतीक है एवं अंधकार को मिटाते हुए चहुँ ओर खुशियाँ फैलाता है। कहा जाता है कि जब राम, रावण को पराजित कर विजयी होकर लौटे थे, तब यह पर्व मनाया गया था। यह दीपावली का पाँच दिवसीय सुंदर त्यौहार, हिंदी पंचांग के सातवें महीने में, कृष्णपक्ष  के बारहवें दिन अर्थात् श्विज कृष्ण द्वादशी को आरंभ होता है। इसके पश्चात् धन त्रयोदशी, नरक चतुर्दशी और अमावस्या आते हैं। दीपावली पर्व के अंतिम दो दिन कार्तिक महीने में आते हैं।

आइये, उत्सव भरे दिनों के इस कार्तिक महीने पर गौर करते हैं। परंतु उसके पहले आँग्ल दिनदर्शिका के साथ पंचांग के तालमेल पर एक संक्षिप्त टिप्पणी...

पंचांग

पंचांग की तिथियाँ क्रमबद्ध होती हैं और चंद्रमा के घटने-बढ़ने को दर्शाती हैं। पहली तिथि को हम “प्रथमा” कहते हैं, दूसरी को “द्वितीया” इत्यादि और अंत में महीने के शुक्ल पक्ष की पंद्रहवीं तिथि  को “पूर्णिमा” कहते हैं, जब चंद्रमा उस पक्ष में अपनी पूर्णता को प्राप्त होता है। कृष्ण पक्ष में जब चंद्रमा पुनः घटने लगता है, तब फिर से तिथियों का आरंभ प्रथमा से होता है और यह पक्ष पंद्रहवीं तिथि “अमावस्या” के साथ समाप्त होता है। 

 

पक्ष के दिन

शुक्लपक्ष (तिथि के नाम)

कृष्णपक्ष (तिथि के नाम)

पहिला

प्रतिपदा

प्रतिपदा

दूसरा

द्वितीया

द्वितीया

तीसरा

तृतीया

तृतीया

चौथा

चतुर्थी

चतुर्थी

पाँचवा

पंचमी

 पंचमी

छठवाँ

षष्ठी

षष्ठी

सातवाँ 

सप्तमी

सप्तमी

आठवाँ

अष्टमी

अष्टमी

नौवाँ

नवमी

नवमी

दसवाँ

दशमी

दशमी

ग्यारहवाँ

एकादशी

एकादशी

बारहवाँ

द्वादशी

द्वादशी

तेरहवाँ

त्रयोदशी

त्रयोदशी

चौदहवाँ

चतुर्दशी

चतुर्दशी

पंद्रहवाँ

 पूर्णिमा

अमावस्या

 

इस प्रकार एक मास में तीस तिथियाँ होती हैं, पंद्रह शुक्ल पक्ष में और पंद्रह कृष्ण पक्ष में, जिसके अनुसार बारह महीनों में ३६० दिन हुए, है ना ? परंतु चंद्रकला पर आधारित पंचांग में ३५४ दिन होते हैं, क्योंकि कभी-कभी एक तिथि एक दिन से अधिक विस्तृत होती है और कभी-कभी तिथि लुप्त भी होती है। इसलिए चंद्रकला पर आधारित पंचांग, जिसमें ३५४ दिन होते हैं, उसमें आंग्ल कैलंडर से, जो ३६५ या ३६६ दिनों का होता है, ११ दिन कम होते हैंसाधारणतः हम सूर्य की गति पर आधारित जनवरी से दिसंबर तक की सौर दिनदर्शिका का अनुसरण करते हैं। पंचांग को सौर दिनदर्शिका (जिसमें एक वर्ष में  ३६५ दिन और ६ घंटे होते हैं) के अनुकूल रखने के लिए, पंचांग में हर ३२ या ३३ मासों में एक अधिक मास जोड़ा जाता है। साधारणतः, अतिरिक्त मास जो उसी नाम के महीने के पहले आता है, ‘अधिक मास के नाम से जाना जाता है और मूल महीने को ‘निज मास कहा जाता है। उदाहरण के रूप में - किसी वर्ष में यदि अधिक श्रावण मास हो, तो उसके पश्चात् निज श्रावण मास भी होगा। ऐसे ही, कभी-कभी समय के चलते एक महीना लुप्त भी हो सकता है, जिसे क्षय मास कहते हैं। गणना जटिल है, परंतु इस प्रकार दोनों दिनदर्शिकाओं के महीनों को समकालिक रखा जाता है। अतः हमारी दिनदर्शिका को “लूनीसोलर/ चंद्र-सौर” भी कहा जा सकता है।

महीनों के नाम २७ नक्षत्रों के नामों से संबंधित हैं। हर पूर्णिमा की रात्रि को चन्द्रमा अपनी गति के अनुसार आकाश में किसी एक नक्षत्र के निकट होता है। पूर्णिमा की रात्रि को चंद्रमा जिस नक्षत्र के निकट हो, उस महीने को उसी नक्षत्र से संबंधित नाम दिया जाता है। अतः पहला चैत्र का महीना चित्रा नक्षत्र से संबंधित, दूसरा वैशाख मास विशाखा नक्षत्र से संबंधित और इस तरह सारे बारह महीनों के नाम नक्षत्रों के नामों पर आधारित होते हैं।

नीचे दी गई सूची में बारह महीनों के नाम और उनसे संबंधित ऋतुएँ उल्लेखित हैं:

 

क्रमांक

चंद्रमास

ऋतु के नाम (हिंदी दिनदर्शिका के अनुसार)

 ऋतु के नाम (आँग्ल कैलेंडर के अनुसार)

 

पूर्णिमा से संबंधित नक्षत्र

 

चैत्र

वसंत

Spring

चित्रा

वैशाख

वसंत

Spring

विशाखा

ज्येष्ठ

ग्रीष्म

Summer

ज्येष्ठा

आषाढ़

ग्रीष्म

Summer

 पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा

श्रावण

वर्षा

Rainy season

श्रवण

भाद्रपद

वर्षा

Rainy season

पूर्वाभाद्रा, उत्तराभाद्रा

आश्विज(आश्विन/अश्वायुज)  

शरद

Autumn

अश्विनी

कार्तिक

शरद

Autumn

कृत्तिका

मार्गशिर

हेमंत

Autumn

मृगशिरा

१०

पुष्य

हेमंत

Autumn

पुष्य

११

माघ

शिशिर

Winter

मघा

१२

फाल्गुन

शिशिर

Winter

फाल्गुनी

 

उपरोक्त सूची के अनुसार वसंत ऋतु से आरंभ होकर शिशिर ऋतु तक हमारी छः ऋतुएँ होती हैं। हर ऋतु दो महीनों की होती है 

कार्तिक मास

आइये, अब हम पंचांग के आठवें महीने, कार्तिक मास के विषय में जानें जो कि एक विशेष शुभ मास है।

हमारे पंचांग की चौथी ऋतु, शरद ऋतु, आश्विन और कार्तिक मास में होती है। मराठी के  विख्यात कवि केशव सुत शरद ऋतु के आगमन का स्वागत इन शब्दों के साथ करते हैं, “ईश्वर अत्यंत करुणामय हैं, जो उन्होंने दुःख-निवृत्ति के लिए वर्षा के पर्जन्यास्त्र से  अकाल के दैत्य पर प्रहार किया है। अब दीपावली के मंगलमय दिन आ गए हैं।

बादलों से रहित शरद ऋतु निरभ्र उज्जवल आकाश के लिए जानी जाती है, जो वर्षा के पश्चात् भरपूर फसल लाती है। अतः चारों ओर सुख-समृद्धि का वातावरण होता है।

 

कार्तिक मास के शुभ दिन

लिप्रतिपदा

कार्तिक का महीना, शुक्ल पक्ष का प्रथम दिवस, बलि प्रतिपदा के उत्सव से आरंभ होता है। बली, एक दयालु और उदार असुर सम्राट थे। किंतु देवताओं के साथ निरंतर युद्ध के कारण, श्री विष्णु ने वामन (एक बौने ब्राह्मण) के रूप में बली को पाताल लोक में निर्वासित कर दिया। पौराणिक कथा के अनुसार, बली हर वर्ष, इस बलि-प्रतिपदा के दिन, भूलोक वापस पधारते हैं, जहाँ उनकी पूजा की जाती है (केरल प्रांत में, ओणम के त्यौहार के समय बड़ी धूम-धाम से बली को पूजा जाता है)। बली, कृषि और अच्छी फसल के प्रतीक हैं। महाराष्ट्र में कृषक को “बलीराजा” कहते हैं। यह दिवस “पाड़वा” के नाम से जाना जाता है और इस दिन विवाहित महिलायें, अपने पति की आरती उतार कर उत्सव मनाती हैं। पति भी अपनी पत्नी को उपहार देते हैं 

 

यम-द्वितीया / भाई-दूज / भाऊ-बीज

अगला दिन, जो दीपावली का पाँचवा और अंतिम दिवस है, उत्तर भारत में भाई-दूज और महाराष्ट्र में भाऊ-बीज के नाम से मनाया जाता है, जब भाई अपने बहन के घर आता है। बहन अपने भाई को मिठाई खिलाती है और भाई उसे उपहार देता है। सुप्रसिद्ध भ्राता यम (मृत्यु के देवता) और उनकी बन यमी के सम्मान में इस दिन को यम-द्वितीया भी कहते हैं। कहा जाता है कि इस दिन यम अपनी बहन यमी के घर गए थे। यमी ने यम को उनका मनपसंद भोजन खिलाया और यम ने यमी को बहुत सारे उपहार प्रदान किए थे। तब यम ने घोषित किया था कि इस दिन जो भी बहन अपने भाई का ऐसा सत्कार करेगी, वह सौभाग्य प्राप्त करेगी। ऐसी है यह कथा... (स्मरण करें कि राखी-पूर्णिमा के दिन बहन अपने भाई के घर राखी बांधने जाती है) 

इस प्रकार कार्तिक मास इन दो महत्वपूर्ण और उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षित पर्वों के साथ आरंभ होता है  

 

कार्तिक शुक्ल नवमी

यह हम चित्रापुर सारस्वतों के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण तिथि है क्योंकि हमारे मठाधिपति, परम पूज्य सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी का जन्म इस दिन हुआ था।

कार्तिक एकादशी, उत्थान द्वादशी

हिंदू धर्म में एकादशी, व्रत और तपस्या की दृष्टि से एक अत्यंत महत्वपूर्ण दिवस है। वैष्णवों (श्री विष्णु और श्री कृष्ण के अनुयायियों) के लिए कार्तिक मास की एकादशी का बहुत महत्व है। पंचांग के चौथे महीने, आषाढ़ की एकादशी पर भक्त आळंदी / देहू से पंढ़रपुर तक चल कर यात्रा करते हैं महाराष्ट्र में, वारकरी संप्रदाय के लोग (पंढरपुर के भगवान विट्ठल के भक्त), कार्तिकी-एकादशी के दिन, पंढ़रपुर (विट्ठल के निवास स्थल) से अपनी पालकियों के साथ अपने अपने विभिन्न निवास स्थानों को लौटते हुए, विशेष रूप से आळंदी (संत ज्ञानेश्वर की समाधि) तथा देहू (संत तुकाराम जी की कर्मभूमि) तक पैदल यात्रा करते हैं।

आषाढ़-एकादशी को शयनी-एकादशी भी कहते हैं (शयन का अर्थ है निद्रा) और कार्तिक-एकादशी को प्रबोधिनी-एकादशी कहते हैं, जब श्री विष्णु निद्रा से जागते हैं। प्रबोधिनी–एकादशी की अगली तिथि को उत्थान-द्वादशी कहते हैं, उठने की द्वादशी। इस तिथि को श्री विष्णु उठ कर ब्रह्मांड की रक्षा का काम पुनः आरंभ करते हैं, ऐसा हमारे पुराणों में कहा गया है।

 

चातुर्मास की समाप्ति

आषाढ़ एकादशी से आरंभ होकर कार्तिक एकादशी तक के चार मास, चातुर्मास के शुभ चार महीने कहलाते हैं। हिंदुओं का मानना है कि इन चार महीनों की अवधि में श्री विष्णु विश्राम करते हैं। संन्यासी, जो किसी एक स्थान पर तीन दिनों से अधिक बिना रुके, निरंतर देश में भ्रमण करते हुए धर्म का प्रचार करते हैं, चातुर्मास की इस अवधि में एक ही स्थान पर वास करते हैं। हमारे परम पूज्य स्वामीजी हमारी परंपरानुसार आषाढ़ पूर्णिमा से भाद्रपद पूर्णिमा तक दो महीनों के लिए चातुर्मास व्रत का पालन करते हैं। यह अवधि साधना, तपस्या एवं धार्मिक प्रवचनों में व्यतीत की जाती है।

 

तुलसी विवाह

कार्तिक एकादशी से कार्तिक पूर्णिमा तक के किसी एक दिन (विशेष रूप से एकादशी या द्वादशी के दिन) - तुलसी और श्री विष्णु के विवाहोत्सव स्वरुप  “तुलसी विवाह” मनाया जाता है। परंपरानुसार, विवाह के शुभ मुहूर्त “तुलसी विवाह” के पश्चात् ही आरंभ होते हैं ।  

पौराणिक कथानुसार, वृंदा, राक्षस जालंधर की सदाचारी पत्नी थी। वह श्री विष्णु की अनन्य भक्त थी। उसके सद्गुणों के कारण जालंधर अपराजेय था, जिस कारण अहंकारवश वह देवताओं से निरंतर युद्ध किया करता था। परंतु, श्री विष्णु द्वारा वृंदा से छल करने पर, जालंधर ने अपनी विशेष शक्तियाँ खो दीं। परिणाम स्वरूप वह देवताओं के साथ युद्ध में पराजित हुआ। अपने साथ विष्णु के छल-कपट का ज्ञान होने पर वृंदा ने अग्नि में आत्मदहन किया।  

उस समय श्री विष्णु ने वृंदा को पुनः तुलसी के अवतार में जन्म लेने और स्वयं उससे विवाह करने का वचन दिया। वधू के रूप में तुलसी और वर के रूप में श्री कृष्ण का यह गठबंधन, “तुलसी विवाह” के नाम से प्रचलित है।

नर्मदा नदी में पाया जाने वाला पावन पत्थर शालिग्राम, इस विवाह में श्री विष्णु का प्रतिरूप माना जाता है। तुलसी श्री विष्णु की महान भक्त होने के कारण “हरिप्रिया” के नाम से भी प्रसिद्ध है...इस कारणवश, श्री विष्णु अथवा श्री कृष्ण के पूजन में तुलसी दल आवश्यक  होते हैं।

 

कार्तिक पूर्णिमा

कार्तिक पूर्णिमा (शुक्ल पक्ष का पंद्रहवाँ दिन) हिंदू, सिक्ख और जैन धर्मियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस दिन, गुरुनानक देव जी का जन्म हुआ जिन्होंने सिक्ख धर्म संस्थापित किया और वे सिक्खों के प्रथम गुरु बने। जैन धर्म के लोगों के लिए भी यह एक महत्वपूर्ण दिन है, जब भगवान महावीर (जैन तीर्थंकर) मोक्ष प्राप्त कर परब्रह्म  में लीन हुए।  

दक्षिण भारत में इस पूर्णिमा पर कार्तिक भगवान के जन्म का उत्सव मनाया जाता है

इस पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। हिंदुओं की ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान शिवजी ने त्रिपुरासुर के अजेय दुर्ग का विनाश किया था । त्रिपुरासुर को प्राप्त वरदान के अनुसार, कि उसके तीन राजमहलों का विनाश एक ही तीर से छिद्रित होने पर ही संभव होगा, भगवान शिवजी ने एक ही तीर से त्रिपुरासुर के दुर्ग को नष्ट किया। इस प्रकार शिवजी ने देवों को त्रिपुरासुर के अत्याचारों से मुक्त किया और वे त्रिपुरारी कहलाए। यह दिवस “देव-दिवाली” नाम से भी जाना जाता है

दक्षिण भारत में दीपों की पंक्तियों को प्रज्वलित करने की परंपरा है। इसे “कार्थिगई दीपम्” कहते हैं। कई स्थानों पर पूर्णिमा की रात्रि को ३६० (एक वर्ष के ३६० दिनों को द्योतित करते हुए), या ७२० (रात्रि को भी सम्मिलित करते हुए ) या ३६५ (सौर-वर्ष के अनुसार) दीप प्रज्वलित करते हैं।  

वैष्णवों की मान्यता है कि इस दिन राधा और कृष्ण गोपियों के साथ रास लीला किया करते थे। यह अवधि कृष्ण भक्तों (जैसे कि चैतन्य महाप्रभु के अनुयायियों) के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। 

हमारे श्री चित्रापुर मठ के लिए यह एक महत्वपूर्ण तिथि है। इस दिन भगवान भवानीशंकर को शोभायात्रा कराते हुए “वनभोजन” के लिए वन में नैवेद्य अर्पण करने हेतु ले जाया जाता है। इस प्रकार हम इस उत्सव द्वारा प्रकृति के सामीप्य के महत्त्व का अनुभव करते हैं।

 

वनभोजन

 “वनभोजन”, अर्थात् ईश्वर की मूर्ति को नैवेद्य हेतु वन में  ले जाने की प्रक्रिया, हमारे मंदिरों का एक महत्वपूर्ण धार्मिक विधान है। इस कार्तिक मास में, निम्नलिखित दिवसों पर हम अपने देवताओं की सन्निधियों एवं पूर्वाचार्यों की समाधियों पर दीपोत्सव के साथ साथ वनभोजन का आयोजन करते हैं।   

१. कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी (शुक्ल पक्ष का चौदहवाँ दिन)

         - श्रीमद् अनन्तेश्वर देवस्थान, विट्ठल  

         - श्री सच्चिदानंद दत्तात्रेय सन्निधि, कुंदापुर

२. कार्तिक पूर्णिमा

         - श्री चित्रापुर मठ, शिराली  - वनभोजन

३. कार्त्तिक कृष्ण द्वितीया

         - श्री उमामहेश्वर देवस्थान, मंगलूरु

४. कार्तिक कृष्ण नवमी

         - श्री भंडिकेरी मठ, गोकर्ण

५. कार्तिक कृष्ण दशमी

         - श्री जनार्दन देव मंदिर, मंकी – वनभोजन  

 

समाराधना (पुण्य तिथि )

समाराधना दिवस हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा महासमाधि ग्रहण करने का दिवस होता है। कार्तिक कृष्ण अष्टमी पर मंगलूरु मठ में श्रीमद् वामनाश्रम स्वामीजी का समाराधना दिवस मनाया जाता है।

 

“बोईता बंदना” (नौका उत्सव) - उड़ीसा

“बोईता बंदना” का उत्सव उड़ीसा में मनाया जाता है। उत्सव के दौरान, कलिंगों के शासनकाल में उड़ीसा-राज्य के अन्य देशों के साथ परस्पर अच्छे समुद्री संबंधों की ऐतिहासिक स्मृति में, केले के तनों और नारियल की डंडियों से बनी छोटी छोटी नावों को पानी में तैराया जाता है। हिंदू जनसाधारण इस महीने में शाकाहारी भोजन का नियम पालन करते हैं।

 

पुष्कर मेला

अजमेर के समीप, राजस्थान के पुष्कर क्षेत्र में कार्तिक एकादशी से कार्तिक पूर्णिमा तक एक मेला आयोजित किया जाता है। पुष्कर मेला भगवान ब्रह्माजी के सम्मान में आयोजित होता है। इस मेले में संसार की सबसे बड़ी ऊंटों की मंडी लगती है। यह मेला चहल-पहल से भरपूर, अत्यंत मनोरंजक और आनंददायक होता है।

 

उपसंहार  

कार्तिक मास में श्रद्धालु हिंदू विधिपूर्वक पवित्र नदियों में स्नान करते हैं। आपने गौर किया होगा कि हमारे उत्सव ईश्वर की उपासना के साथ साथ, प्रकृति के साथ अपने संबंध दृढ़ करने में भी सक्रिय हैं। तुलसी विवाह में तुलसी के पौधे की पूजा होती है।  प्रायः प्रत्येक कुटुंब में जहाँ आँगन की सुविधा होती है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में, तुलसी को प्रतिष्ठित कर पूजा की जाती है। “बलिप्रतिपदा” पर, अपनी कृषि संबंधी धरोहर पर ध्यान केंद्रित कर समृद्ध फसल के प्रतिरूप, बलीराजा की पूजा करते हैं। हम अपने पारिवारिक संबंधों को भी उत्सवों के माध्यम से पुष्ट करते हैं – कार्तिक प्रतिपदा पर पति-पत्नी का और भाईदूज पर भाई-बहन का संबंध सुदृढ़ होता है। देवताओं की उपासना इन उत्सवों का अभिन्न अंग है - उदाहरणार्थ लक्ष्मी पूजन दीपावली का आधारभूत अंग है। चातुर्मास में प्रकृति के सम्मान पर ध्यान देते हुए धार्मिक तप का आचरण किया जाता है। यही एकादशी व्रत का भी ध्येय है। पर्वों का हम जितना अधिक चिंतन और अध्ययन करते हैं, उतना ही अधिक हमें ज्ञात होता है कि हमारे पूर्वजों ने धर्म, प्रकृति, सामाजिक प्रथाओं और शारीरिक तपस्या इत्यादि को किस तरह हमारे पर्वों के आचरण में सम्मिलित किया है। अंततोगत्वा ये त्यौहार सामंजस्यपूर्ण जीवनशैली का पथ प्रदर्शित कर हमारी आध्यात्मिक यात्रा को सुचारु बनाते हैं। 

आपने यह भी देखा होगा कि इन सभी उत्सवों में ओत प्रोत एक ही सूत्र है – हमारा सनातन धर्म, जो हमारे देश को एक साथ बाँध कर रखता है। यदि आप दक्षिण भारत में हैं, तो आप कार्तिगइ दीपम् में अपने पड़ोसियों के साथ मनःपूर्वक सम्मिलित होंगे, अथवा उड़ीसा में  “बोईता बंदना” को वहाँ के निवासियों के साथ ! पंजाब में आप प्रसन्नतापूर्वक गुरुपर्व मनाएँगे। हमारे धर्म में न केवल विविधता में समानता दर्शाई जाती है, अपितु सक्रियतापूर्वक इसे प्रोत्साहित भी किया जाता है। हम जिन उत्सवों का आचरण करते हैं, वे हमसे न केवल प्रकृति की उपासना करवाते हैं, बल्कि ये पर्व हमें प्रकृति के और भी निकट ले जाते हैं। हमारा धर्म वस्तुतः एक महान संयोजक शक्ति है, जो विविधता और सांस्कृतिक असमानताओं के बावजूद हमारे देश को महान बनाती है।   

शुभं भवतु !

              ।।ॐ श्री गुरुभ्यो नमः ।।ॐ श्री भवानीशंकराय नमः ।।ॐ श्री मात्रे नमः ।। 

जय शंकर !
जब हम गुरु पूर्णिमा २०२२ में श्री चित्रापुर के मठाधिपति परम पूज्य श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी के चातुर्मास व्रत की कालावधि में कार्ला मठ गये थे, तब पूज्य गुरुदेव भगवान के श्री चरणों में उत्तर भारत के साधकों के लिए शिविर आयोजित करने का निवेदन किया था।  

परम पूज्य स्वामीजी की हम पर अथाह अनुकंपा और स्नेह है, अतः  उन्होंने तुरंत ही स्वीकृति प्रदान कर हमें कृतार्थ किया।
राजस्थान में स्वामीजी के मार्गदर्शन में अनेकों स्थानों पर कल्याणकारी आयोजन हो चुके थे और राजस्थान के साधकों का  २०१९-२० में शिराली में एक भव्य शिविर का आयोजन भी हो चुका था।

उत्तर प्रदेश के सारस्वत साधक भी हमारे गुरुदेव के आशीर्वचनों व हमारी पवित्र परंपरा से लाभान्वित हों, इस उद्देश्य के साथ इस शिविर की योजना बनी। जैसे ही शिविर का कार्यक्रम निर्धारित हुआ, राजस्थान के साधकों की भी गुरु महाराज के दर्शन हेतु लालसा जग उठी और वे भी शिविर में जाने हेतु तैयार हो गये।

मठ प्रबंधन ने हमें १५० साधकों के शिविर की अनुमति दी और हमने पंजीकरण शुरू कर दिया। साधकों में गुरु दर्शन - श्रवण का इतना जोश जगा कि यह संख्या २०० के पार चली गई। तब तुरंत हमें पंजीकरण रोकना पड़ा और जिनके टिकट सुनिश्चित हुए, उन्हीं १५० शिविरार्थियों को प्रवेश दे कर सविनय हाथ जोड़ना पड़ा। हालांकि लगभग २५, ३० साधक अपनी व्यक्तिगत मजबूरी के चलते ऐन वक्त पर नहीं पहुँच पाये, लेकिन फिर भी उत्तर प्रदेश के विभिन्न जनपदों से लगभग ८० और राजस्थान के ३० शिविरार्थी ६/७ नवंबर को शिराली मठ पहुँचे।

७,८,९,१० नवंबर को चार दिवसीय भव्य शिविर का आयोजन श्री चित्रापुर मठ में हुआ।

शुभ संयोग से इसी दौरान देव दीपावली का त्यौहार भी संपन्न हुआ और साधकों को पालकी यात्रा, आतिशबाजी, ढ़ोल ताशे, अद्भुत नृत्य, रंगोली और भव्य रोशनी से सजे श्री चित्रापुर मठ के दर्शन करने और एक कल्पनातीत रोमांच का अनुभव करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 

चित्रापुर सारस्वत समाज के आराध्य देवता भगवान श्री भवानीशंकर महादेव व पूर्वाचार्यों की समृद्ध परंपरा, उत्तर प्रदेश के भगवान श्रीकृष्ण के कर्मयोग और राधा रानी के अगाध प्रेम की परंपरा तथा राजस्थान की मीरा बाई सरीखी अनन्य भक्ति व ठेठ ग्रामीण संस्कृति का त्रिवेणी संगम हुआ, जो वास्तव में अद्भुत व अकल्पनीय था।

७ नवंबर को शिविर के प्रथम दिवस पर परम पूज्य श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी द्वारा दीप प्रज्वलित कर शिविर का विधिवत् शुभारंभ किया गया। इसके तुरंत बाद सभी शिबिरार्थियों को मठ के परिसर में स्थापित विभिन्न स्थलों और मठ में प्रतिष्ठित मंदिरों और पूर्वाचार्यों की सन्निधियों की परिक्रमा-वंदना के क्रम से परिचित कराया गया।
फिर हमने परम पूज्य श्रीमत् परिज्ञानाश्रम स्वामीजी तृतीय द्वारा स्थापित श्री चित्रापुर मठ की अमूल्य धरोहर ‘वस्तु संग्रहालय’ एवं नारी-सशक्तिकरण के उपक्रम ‘संवित सुधा’ का अवलोकन किया। शाम पाँच बजे "पंचवटी" में अत्यंत सरल और रोचक माध्यम से साधकों को संस्कृत संभाषण करवाया गया।

फिर उसी स्थान पर पूज्य स्वामीजी का पदार्पण हुआ और उन्होंने अपने श्रीमुख से आशीर्वचन दे कर साधकों को अभिभूत किया। सायंकाल सात बजे दीपमालिकाओं, रंगोली, आतिशबाजी व चकाचौंध रोशनी से सजे मठ परिसर को देख कर साधक रोमांच से भाव विभोर हो गए, फिर श्री भवानीशंकर महादेव का पालकी उत्सव और शिवगंगा सरोवर की परिक्रमा, नाव में श्री गणेश देव को साथ लेकर अष्टावधान सेवा अर्पित करते हुए उत्सव मनाया गया।

८ नवंबर को प्रातः  मातृ वर्ग द्वारा श्री देवी अनुष्ठान तथा पुरुष वर्ग द्वारा श्री गायत्री अनुष्ठान किया गया। ११ बजे सभी साधकों को मठ के अंतर्गत कैंब्रे फार्म व गोशाला का भ्रमण करवाया गया। तत्पश्चात् दोपहर में चंद्रग्रहण के दौरान साधकों ने जप तथा भजन कीर्तन किया। सांय ४.३० बजे धर्म प्रचारक डा. चैतन्य गुलवाड़ी माम द्वारा पर्दे पर मठ द्वारा संचालित विभिन्न गतिविधियों का शानदार प्रस्तुतीकरण किया गया। शाम को संस्कृत संभाषण का अभ्यास-सत्र हुआ।

९ नवंबर प्रातः आठ बजे सभी साधकों को बसों द्वारा गोकर्ण स्थित भंडीकेरि आदिमठ ले जाया गया। भट्ट माम द्वारा वहाँ पर प्रतिष्ठित हमारे प्रथम गुरु परम पूज्य श्रीमत् परिज्ञानाश्रम (प्रथम) स्वामीजी की सन्निधि, मठ व परंपरा से संबंधित सभी जानकारी दी गई। तथा वहाँ पर स्थित पवित्र कोटितीर्थ के दर्शन कर साधकों ने पुण्य लाभ अर्जित किया। फिर साधकों का समूह मल्लापुर ग्राम स्थित परम पूज्य श्रीमत् शंकराश्रम (द्वितीय) स्वामीजी  के समाधि स्थल पहुँचा। अरुण उभयकर माम ने इस समाधि-मठ से संबंधित संपूर्ण जानकारी दे कर साधकों को कृतार्थ किया। फिर शिराली लौटकर दोपहर में सभी साधक विश्वप्रसिद्ध मुर्डेश्वर महादेव मंदिर पहुँचे और दर्शन कर लाभान्वित हुए। तत्पश्चात् यह दल मठ के अंतर्गत स्थित अल्वेकोड़ी   समुद्र तट पहुँचा और समुद्र में अठखेलियाँ कर साधक रोमांच और कौतूहल से भर उठे।
वहीं समुद्र तट पर पूज्य स्वामीजी के सान्निध्य में उत्तर भारत के साधकों ने भजनों की सरिता बहा कर खूब वाहवाही लूटी और पूज्य गुरुदेव ने अति प्रसन्न होकर सभी को आशीर्वाद प्रदान किया।
 
१० नवंबर को प्रातः दस बजे से परम पूज्य गुरुदेव द्वारा शिराली मठ में श्री देवी पूजन किया गया। फिर ४० साधकों को श्री पादुका पूजन करने का सौभाग्य मिला। इसके बाद सभी साधकों को पूज्य स्वामीजी  द्वारा श्री तीर्थ वितरण किया गया और कुछ बड़भागी साधकों को, जिन्होंने भिक्षा-सेवा अर्पण की थी, पूज्यश्री के हाथों श्री भिक्षा प्रसाद भी मिला। सायं चार बजे से पूज्य स्वामीजी ) द्वारा शिविर समापन आशीर्वचन हुआ। उत्तर प्रदेश के साधक शाम की ट्रेन से लौट गए।

११ नवंबर को राजस्थान के साधकों ने गोकर्ण स्थित महाबलेश्वर महादेव मंदिर के दर्शन किए और समुद्र तट पर अठखेलियाँ  कर खूब आनंद लिया। शाम ५.३० बजे इन साधकों ने भटकल से मुंबई की ट्रेन पकड़ी।

चार दिवसीय शिविर में सुप्रभातम् , प्राणायाम, निनाद, दीप नमस्कार, प्रातः कालीन, मध्याह्न एवं सायंकालीन अष्टावधान पूजा, चाय, नाश्ता, भोजन प्रसाद आदि दैनंदिन कार्यक्रम रहे।

राजस्थान के साधकों ने मुंबई में भी कुछ दर्शनीय स्थलों का भ्रमण किया। इस यात्रा में किये गये मठ प्रबंधन के आतिथ्य तथा शिबिरार्थियों के अनुभव व आनंद को शब्दों में पिरोना असंभव है।

हम सभी पर हमारे अतिप्रिय स्वामीजी का स्नेहिल आशीर्वाद ऐसे ही बना रहे।

।। ॐ नमः पार्वती पतये हर हर महादेव ।। 

 आलेख - श्रीमती साधना कायकिणी, बेंगलूरु
 हिंदी भाषांतर - अनुवाद समिति

 

 

नवरात्रि, देवी पूजन का एक बहुप्रतीक्षित त्यौहार है, जो बहुत धूमधाम और भव्यता के साथ मनाया जाता है।

 

माघी नवरात्रि (फरवरी में), चैत्र नवरात्रि (मार्च/अप्रैल में), आषाढ़ नवरात्रि (अगस्त में) और शारदीय नवरात्रि (अक्टूबर/नवंबर में), ये चार मुख्य नवरात्रि हैं। परंतु इस आश्विज मास की शारदीय नवरात्रि को सबसे महत्वपूर्ण और लोकप्रिय माना जाता है। हर हिंदू माह का एक अधिष्ठान देवता होता है सार्वभौम माता आश्विज मास की अधिष्ठात्री देवी हैं। इस प्रकार इस महीने के शुक्ल पक्ष के दौरान पूरे विश्व में देवी का विशेष रूप से स्वागत कर उसकी पूजा की जाती है।

 

शारदीय नवरात्रि आश्विज मास की शुक्ल प्रतिपदा के पहले दिन से आरंभ होती है और दसवें दिन संपन्न होती है, जिसे विजयादशमी या दशहरा के रूप में मनाया जाता है। इन नौ दिवसों में हर दिन देवी शक्ति का अलग अलग रूप में, अलग अलग नाम से संबोधित कर पूजन किया जाता है

 

नवरात्रि के प्रथम दिन वे पर्वतों के राजा हिमवान की सुंदर पुत्री शैलपुत्री के रूप में आती हैं। दूसरे दिन उनका ब्रह्मचारिणी के रूप में दर्शन होता है, वह तपस्वी रूप जो महान तपस्वी शिव को लुभाने के लिए तपस्या में रत है।

तीसरे दिन वे अर्धचंद्र को धारण करने वाली घंटी के आकार के मुकुट के साथ प्रकट होती हैं, अतः उन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है। चौथे दिन कूष्मांडा –  देवी का एक ऐसा रूप है जहाँ देवी को पूरे ब्रह्मांड की निर्मात्री के रूप में दर्शाया गया है। पाँचवें दिन उन्हें सुब्रह्मण्य या कार्तिकेय देव की पावन  माता के रूप में दर्शाया गया है और ललिता पंचमी को स्कंदमाता के रूप में उनके अत्यंत आकर्षक दर्शन होते हैं। छठवाँ दिन देवी सरस्वती को समर्पित है और देवी की पूजा कात्यायन ऋषि की पुत्री कात्यायनी के रूप में की जाती है। सातवें दिन उनके कालरात्रि के विकराल रूप की पूजा की जाती है, जहाँ उनका शांत रूप बुराई को नष्ट करने हेतु रौद्र रूप में परिवर्तित हो जाता है। आठवें दिन को दुर्गाष्टमी कहा जाता है और देवी एक सौम्य एवं दयालु महागौरी के रूप में जानी जाती हैं। नवरात्रि उत्सव के नौवें और अंतिम दिन उन्हें सिद्धिदात्री अर्थात् इच्छापूर्ति करने वाली देवी के रूप में पूजा जाता है।

 

 समस्त विश्व में भक्तों द्वारा नौ रातों की पूजा करने के पश्चात् यह  विशेष दसवाँ दिन विजयादशमी कहलाता है इसे दशहरे के रूप में भी मनाया जाता है, जिस दिन भगवान श्री राम ने रावण का वध किया और अयोध्या की ओर अपनी दिग्विजय यात्रा प्रारंभ की।

 

हमारे श्री चित्रापुर मठ शिराली में नवरात्रि को अनूठे और आनंदमय उत्सव के रूप में मनाया जाता है। कुछ चित्रापुर सारस्वत परिवारों के कुटुंब देवता श्री चित्रापुर मठ में विराजित हैं और देवी पूजक परिवार देवी माँ के उत्सव को मनाने के लिए मठ में एकत्रि होते हैं। बड़े विग्रहों को देवी मंडप में लाया जाता है,

 

जिससे भक्तों के लिए उनकी पूजा करना सुलभ हो जाता है। विभिन्न रंगों की साड़ियों में सुशोभित, पारंपरिक आभूषणों से सुसज्जित और सुगंधित पुष्पों से अलंकृत, कुटुंब-देवियों की आराधना का यह सुन्दर दृश्य नवरात्रि महोत्सव में हमारे दिव्य मठ की शोभा को और अधिक बढ़ाता है

 

नवरात्रि उत्सव हमारे मठ में भगवान भवानीशंकर की सामूहिक आराधना और घट स्थापना के साथ आरंभ होता है। छोटे छोटे घटों में विधि-विधानपूर्वक धान्य बोये जाते हैं, जो दसवें दिन तक अंकुरित हो जाते हैं, दशहरे के दिन इन अंकुरों का प्रसाद रुप में वितरण किया जाता है। देवी मंडप में नित्य पूजा, दुर्गा नमस्कार और हर रात्रि परम पूज्य स्वामीजी द्वारा किया जाने वाला नियमित श्री देवी पूजन, इस उत्सव की विशेषताएँ  हैं। देवी को प्रसन्न करने के लिए चंडिका होम - विधिवत् यज्ञ भी एक विशेष सेवा है।

 

नवरात्रि का एक और अति प्रिय विधान कुमारिका पूजन है, इस समारोह के लिए ३ से ७ वर्ष की आयु की बालिकाओं को आमंत्रित किया जाता है। माताएँ अपनी पुत्रियों को बड़े प्रेम से तैयार करती हैंऐसा माना जाता है कि पूजा के समय देवी स्वयं उन कन्याओं के रूप में प्रकट होती हैं। विवाहित महिलाएँ नन्ही कुमारिकाओं की पूजा करती हैं, उनके पैर धोती हैं, उनकी आरती उतारती हैं और उन पर उपहारों की बौछार करती हैं। हमारे मठ में परम पूज्य स्वामीजी इस अत्यंत प्रिय विधान का आरंभ करते हैं, जिससे ये नन्हीं कुमारिकाएँ अति प्रसन्न होती हैं।

 

दसवाँ दिन नवरात्रि उत्सव का अंतिम दिवस होता है और इसे विजयादशमी कहा जाता है। यह दिन, देवी द्वारा देवों को पीड़ित करने वाले भंडासुर के वध का स्मरण  दिलाता है। यह हमारे दशम मठाधिपति सर्वप्रिय परम पूज्य श्रीमत् परिज्ञानाश्रम स्वामीजी तृतीय का पट्टाभिषेक दिवस भी है। विजयादशमी पर हम शमी वृक्ष की पूजा करते हैंविजयादशमी का यह दिवस चित्रापुर सारस्वतों द्वारा एक अत्यंत शुभ दिन माना जाता है। घट विसर्जन नवरात्रि के समापन का प्रतीक है।

 

शुक्ल चतुर्दशी को देवी की उपासना का ही विस्तार माना जाता  है, क्योंकि हम देवी लक्ष्मी को माँ भूमि के रूप में पूजते हैं। धान्य लक्ष्मी के रूप में धान के खेतों में देवी की पूजा की जाती है। नव धान्य (९ प्रकार के अनाज) को भक्ति भाव से मठ में लाकर अर्पित किया जाता है।

 

पूर्णिमा के दिन हम धनलक्ष्मी का पूजन करते हैं, इस विशेष पूर्णिमा दिवस का एक दिव्य और महत्वपूर्ण नाम है - कोजागरी पूर्णिमा ! ऐसी मान्यता है कि इस रात्रि को रात भर जागते रहने से आध्यात्मिक शक्ति मिलती है। ऐसा माना जाता है कि देवी लक्ष्मी स्वर्ग से दीप्तिमान चंद्रकिरणों के मार्ग से धरती पर उतरती  हैं और वे पूछती हैं, "को जागर्ति" ? अर्थात् "कौन जाग रहा है" ? जो भी साधक उस रात्रि को जागता है , वह विशेष रूप से धन्यभागी होता है

हमारे परम पूज्य स्वामी जी द्वारा समाज की ओर से किया गया श्री देवी पूजन उस दिन देर रात्रि तक चलता है।

 

बादाम मिश्रित दूध , जो सोलह कलाओं युक्त चंद्रमा की रश्मियों के संपर्क से पावन किया गया है, उसे प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है।

 

सभी आयु एवं वर्ग के साधकों द्वारा गाए जाने वाले भक्तिपूर्ण भजनों के साथ एक उत्साहपूर्ण और आनंदमय गरबा नृत्य के साथ उत्सव संपन्न होता है। इस गरबा नृत्य का समापन परम पूज्य स्वामीजी द्वारा दिव्य मधुर वाणी में गाए भजन के साथ होता है। तत्पश्चात् शीघ्र ही जब परम पूज्य स्वामीजी साधकों का मार्गदर्शन करते हुए ध्यान करवाते हैं , तो पूरी सभा दिव्य मौन में डूब जाती है।

 

इस प्रकार एक पखवाड़े तक चलने वाले इस पावन देवी उत्सव का समापन होता है। नवरात्रि उत्सव वास्तव में साधकों के जीवन में एक नव शक्ति का संचार करता है। जो भी साधक इस उत्सव में भावपूर्ण भक्ति से संलग्न होता है, उसकी आध्यात्मिक ऊर्जा में अवश्य ही उत्थान होता है।

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मूल लेखिका - श्रीमती विजया नाडकर्णी 
हिंदी भाषांतर - टीम अनुवाद 
 

श्री गुरुभ्यो नमः

 

 अनंत चतुर्दशी (भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा) का अगला दिन अर्थात् दो मास की शुभ चातुर्मास अवधि का समापन दिवस सीमोल्लंघन के रूप में मनाया जाता है। सीमन् और उल्लंघनम् (क्रॉसिंग ओवर) शब्दों से व्युत्पन्न, सीमोल्लंघन का अर्थ है - चातुर्मास अवधि के लिए एक नियत स्थान पर रहने के पश्चात् उस स्थल की सीमा को पार करनाचातुर्मास के दौरान की गई वैयक्तिक साधनाओं को साधक उनके सफल समापन के लिये कृतज्ञता की प्रार्थना के साथ देवताओं और गुरुपरंपरा के चरणों में अर्पित करते हैं। साधनाओं के दौरान हुई किसी भी त्रुटि के लिए क्षमायाचना भी की जाती है।

 पूज्य स्वामीजी द्वारा पूजन

 इस दिन संध्या के प्रारंभिक प्रहरों में स्वामीजी उस स्थान के निकटतम नदी तट (इस वर्ष २०२२  कार्ला में इंद्रायणी नदी) पर पहुँचते हैं, हाँ उन्होंने चातुर्मास का व्रताचरण किया है। सुसज्जित भव्य पंडालगाया जाता है और पूजा की तैयारी पहले से कर ली जाती है। सर्वप्रथम पूज्य स्वामीजी श्री गणेश पूजन करते हैं और उसके पश्चात् उनके द्वारा 'श्री आदि शंकराचार्य पूजन' किया जाता है। इन पूजनों में भाग लेना, एकत्रित साधकों के लिए एक दिव्य अनुभव होता है, जो इस विशेष अवसर के लिए दूर-दूर से आते हैं। पूजा के बाद उपस्थित साधक पूज्य स्वामीजी के साथ 'श्री दक्षिणामूर्ति स्तोत्र' का पाठ करते हैं। उपस्थित साधक श्रीमद्भगवद्गीता के किसी भी एक अध्याय का भी पाठ करते हैं।

 

स्वामीजी आदिशंकराचार्य पूजन करते हुए

 

इसके बाद पूज्य स्वामीजी नदी के समीप जाते हैं, जहाँ 'गंगा पूजन' की तैयारी की गई है। नदियों के प्रति श्रद्धा हमारी परंपरा का एक महत्वपूर्ण अंग है और कोई भी पूजा पवित्र नदियों के 'आवाहनम्' के बिना पूरी नहीं होती है।  प्रकृति के प्रति कृतज्ञता दर्शाने की यह हमारी पारंपरिक पद्धति है।

 

गंगा पूजन करते स्वामी जी

 

 आरती के बाद पूज्य स्वामीजी नौका विहार के माध्यम से सीमोल्लंघन के लिए नाव पर आरूढ़ होते हैं। नाव को फूलों से सजाया जाता है और स्वामीजी नदी के उस पार दूसरे तट पर जाते हैं। श्री चित्रापुर मठ स्थायी समिति के अध्यक्ष और उस वर्ष के चातुर्मास के संयोजक व भट्ट माम इत्यादि कुछ सेवक नाव में स्वामीजी के साथ जाते हैं। अपने गुरु को नदी-पार किनारे से उत्साहपूर्वक लौटते हुए देखना साधकों को एक गर्मजोशी का अनुभव कराता है,

 "मैं आपको इस संसार के पार ले जाने की प्रतिज्ञा करता हूँ

नदी की घाटी भजनों से गूंज उठती है जब स्वामीजी उत्सुक साधकों के पास लौटते हैं, जो 'जय जयकार' और 'हर हर महादेव' के उद्घोष के साथ साधक उनका स्वागत करते हैं।

 

नौका विहार

 

पूज्य स्वामीजी फिर मठ में लौट आते हैं। जैसे-जैसे तारे धीरे-धीरे आकाश में प्रकट होने लगते हैं, साधक बड़ी आतुरता से शोभा-यात्रा की प्रतीक्षा करते हैं।

 शोभा यात्रा

 पूज्य स्वामीजी फूलों और रंगबिरंगे विद्युत गोलों की लड़ियों से सुशोभित एक रथ पर आरूढ़ होते हैं। ढोल की थाप पर शोभायात्रा निकलती है। सभी आयु के साधकों द्वारा अखंड भजन गाए जाते हैं। अपने परम पूज्य स्वामीजी को देखते हुए हमें "देवु गुरुरूपेयेत्ता" (देव गुरुरूप में आते हैं) का अनुभव होता है। स्वामीजी का दैदीप्यमान स्मित हमारे हृदय को आनंद और आह्लाद से भर देता है। साधक गुरुदेव का स्वागत फूलों, फलों और आरती के एक पळेरू (थाली) से करते हैं। जब स्वामीजी अभिनंदन में अपना हाथ उठाते हैं, तो हम यह अनुभव करते हैं कि गुरु शक्ति का आशीर्वाद और प्रसाद हम पर बरस रहा है।

 

 शोभा यात्रा

 शोभायात्रा मठ में लौटती है और पूज्य स्वामीजी रथ से उतरते हैं, हाँ उनका पारंपरिक पूर्ण-कुंभ से स्वागत किया जाता है। तत्पश्चात् धर्मसभा और पादपूजा का आयोजन होता है। लंबी शोभायात्रा के बावजूद भी साधक स्वयं को उल्लसित अनुभव करते हैं और पूज्य स्वामीजी के इन आश्वासन भरे आशीर्वचन को सुनने के लिए उत्साह से परिपूरित रहते हैं, कि सभी की साधना को हमारे परम गुरु के चरण कमलों में अर्पित किया गया है और गुरु परंपरा  हमें एक उच्च स्तर तक ले जाती है। जब हम दीप नमस्कार का पाठ करते हैं, तब हम श्रद्धापूर्वक स्वामीजी से मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करते हैं कि हम आध्यात्मिक पथ पर प्रगति करना जारी रख सकें

 

 

को कोटि कोटि प्रणाम।

 

फोटो सौजन्य श्री चित्रापुर मठ वेबसाइट वीडियो

मूल लेखिका - श्रीमती विद्या कुम्टाकर कुमार

हिंदी भाषांतर - टीम अनुवाद

३० अगस्त, २०२२

 

तयी (सुवर्ण गौरी व्रत या हरतालिका) और चवती (गणेश चतुर्थी) चित्रापुर सारस्वतों द्वारा मनाए जाने वाले सबसे महत्वपूर्ण आनंददायक उत्सवों में से एक हैं। ये उत्सव न केवल बाह्य इन्द्रियों पर अपितु आंतरिक स्तर पर भी हृदयग्राही होते हैं। इन दोनों उत्सवों में मूलभूत यह विचार है कि देवी गौरी अपनी माँ के घर कुळार आई हैं - उन्हें माँ ने अपना सान्निध्य दिया है। इस दौरान मन से  सारी चिंताएँ व व्यथाएँ दूर हो जाती हैं गर्मजोशी और पारस्परिक सहृदयता रिश्तों की मजबूती का मार्ग प्रशस्त करते हैं और लोगों के साथ मिलने-मिलाने से हमें आभासी जगत से कुछ पीछे हटकर पुनः वास्तविक संसार में कदम रखने में सहायता मिलती है। यह वह समय भी है जब घ्राण और स्वाद की लालसा प्रचोदित होकर प्रसन्नतापूर्वक तृप्त हो जाती है इन अवसरों को मनाने के लिए परिवारों द्वारा सुन्दर नूतन परिधान एवं आभूषण धारण किए जाते हैं।

 

भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की तृतीया और चतुर्थी के दिन जैसे-जैसे निकट आते हैं, हमारे (संक्षेप में ‘आमची’/चित्रापुर सारस्वत ) घरों में उत्सवी गतिविधियों की झड़ी लग जाती है तथा व्यस्ततम योजनाओं के कार्यान्वयन में अवर्णनीय उत्साह दिखाई देता है

 

तयी (वायणा पूजा या गौरी तृतीया) गणेश चतुर्थी (चवती) से एक दिन पहले मनाई जाती है और इस दिन देवी पार्वती (या सुवर्ण गौरी) अर्थात् भगवान गणेश की माता की पूजा की जाती है। तयी के दिन बालिकाएँ, युवतियाँ और महिलाएँ अग्रगण्य होकर बड़ी प्रसन्नता से सभी कार्य करती हैं, जिनमें पुरुष भी सहायता करते हैं

 

परंपरागत रूप से तयी और चतुर्थी पूजा की व्यवस्था गौरी पूजा से लगभग दो दिन पहले अमावस्या के बाद आरंभ होती है। पूजा क्षेत्र, मंदिर और घर की पूरी सजावट और (बहुप्रतीक्षित) नैवेद्य हेतु खाद्य पदार्थों की तैयारी सुव्यवस्थित रूप से, धूमधाम से की जाती है। घर की वरिष्ठ महिला द्वारा सौंपे गए किसी भी काम को करने में परिवार के सभी सदस्य खुशी-खुशी अपने अपने सामर्थ्यानुसार शामिल होते हैं। सहायक-गण  दिन में कई बार पूजा और खाद्य पदार्थों में उपयोगी सामग्री के क्रय के लिए घर और बाजार के बीच दौड़ते रहते हैं और एक के बाद एक तेजी से विभिन्न कार्यों को कुशलतापूर्वक संपन्न करते हैं। इस उत्साहपूर्ण उत्सव के भँवर में फँसने से कोई स्वयं को रोक नहीं पाता।

 

तयी - वायण और गौरी पूजा (वायणा दोरी: एक साधारण धागा या मिश्रित रंगों वाला रेशमी धागा) : गृहस्वामिनी के नेतृत्व में इस पवित्र और शुभ अवसर को अन्य अधिकांश त्यौहारों की अपेक्षा अधिक गहन उत्साह के साथ मनाया जाता है। कभी-कभी पुजारियों की सहायता से घर की महिलाएँ, परिवार के वंशजों के लिए देवी की कृपा और आशीर्वाद के साथ-साथ अन्य निकटतम लोगों की दीर्घायु के लिए भी इस पूजा को आचरित करती हैं। नई दुल्हन के लिए तो यह एक बड़ा उत्सव है, जब वह एक नवविवाहित महिला (सुमंगली या सवाशिणी) के रूप में अपनी पहली ‘तयी’ के लिए अपने मायके जाती है।

 

स्नान करने के बाद नारियल के ३ रंध्रों  (हम इन्हें  '२ आँखें और मुँह' कहते हैं) के बीच ऊपरी सूखे भूसे के केवल एक गुच्छ (जिसे ‘शेंडी’ कहा जाता है) को छोडते हुए शेष भूसे को उतारकर नारियल को अच्छी तरह से साफ किया जाता है विवाहित महिलाएँ आम तौर पर कम से कम ५ नारियलों का उपयोग करती हैं और अविवाहित युवतियाँ (जो ‘कन्या’ कहलाती हैं) और बालिकाएँ २ नारियलों का उपयोग करती हैं (कुछ परिवार ३ नारियलों का उपयोग करते हैं)।

 

युवाओं/युवतियों का काम अधिकतर नारियलों की अच्छी तरह से सफाई कर उन्हें शुद्ध करने के लिए हल्दी के पानी में डुबोकर रखना है। नम नारियल के गोले को रंगीन चाक और फिर रंग के साथ रचनात्मक रूप से चित्रित किया जाता है। दो नारियल क्रमशः गौरी और गणेश का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुने जाते हैं। विशेषतः घर का बना काजल नारियल की आँखों पर लगाया जाता है और उसके मुँह में नारियल के तेल से सना हुआ सिंदूर (एक नारंगी-लाल कॉस्मेटिक पाउडर) या कुमकुम लगाया जाता हैनारियल के सबसे बड़े उभार पर पूरी परिधि को चाक द्वारा एक चक्र से घेरा जाता है। गौरी सजाने के लिए चुना हुआ नारियल पूरी तरह से सफेद चाक या रंग (आँखों और मुँह को छोड़कर) से रंगा जाता है और नारियल के एक तरफ सिंदूर (कुमकुम) का तिलक लगाया जाता है – कुछ महिलाएँ कुमकुम से आड़ा तिलक लगाती हैं, जबकि कुछ सादा गोल टीका लगाती हैं फिर सभी तैयार नारियल मंदिर (देवाकूड़) या घर के किसी सुरक्षित एकांत कोने में रख दिए जाते हैं।

 

गौरी और वायणा पूजा की सुबह महिलाएँ सिर-स्नान करती हैं और वायणा पूजा समाप्त होने तक उपवास रखती हैं। इसके बाद उस दिन बिना लहसुन, बिना प्याज के सात्विक आहार का पालन किया जाता है। जहाँ गौरी के प्रतीक नारियल को पूजा के लिए रखा जाता है, उस पोडियम के पीछे गौरी का एक चित्र चिपकाया जाता है।

 

गौरी की बाँयी ओर अगले दिन (चवती) गणेशजी को स्थापित करने के लिए जगह छोड़ी जाती है चपटे केले के पत्ते पर (जिसकी नोंक यजमान की ओर रहे ) मुट्ठी भर चावल के दानों से एक छोटा सा ढेर बनाते हैं, जिस पर जलपूरित एक कलश स्थापित होता है। कलश में पाँच रूपए का सिक्का एवं एक पूरी सुपारी डालकर उसके मुँह पर पाँच दूर्वा (तृण) निमज्जित कर रखी जाती हैं। तैयार कलश के मुख पर पाँच साफ आम के पत्ते या सुपारी के पत्ते रखे जाते हैं और 'नारियल गौरी' को  उस पर स्थापित किया जाता है। कलश पर रखे नारियल-गौरी को फिर आभूषणों से सजाया जाता है (कुछ परिवार केवल गौरी पूजा के लिए उपयोग किए जाने वाले आभूषण रखते हैं) और कलश के चारों ओर एक नई रेशमी साड़ी को लपेट कर सुगंधित फूलों से सजाया जाता है। नारियल-गौरी को एक मंगलसूत्र पहनाकर, हरे और काले काँच की चूड़ियाँ दोनों तरफ रखी जाती हैं और अक्सर नारियल पर एक देवी-मुख (चांदी, तांबे या मिट्टी से बना एक मुखौटा) भी बाँधा जाता है। पूजा के दौरान, कई विधियाँ क्रमानुसार की जाती हैं: आचमन, कलश पूजा, शंख पूजा, शुद्धिप्रोक्षण, पंचामृत पूजा और अभिषेक के साथ गौरी प्राणप्रतिष्ठा। एक छोटा बाँस का दोना या थाली (पळेरु) में ताजी सुपारी, पान के पत्ते (विडो), फल (अधिकांशतः केला), सुपारी के फूल (भिंगारु) या सुगंधित पुष्प, जैसे चंपा, मोगरा इत्यादि, हल्दी, कुमकुम, खीरा, तुरई, गन्ने का एक टुकड़ा (कब्बू ), भिंडी और एक प्रज्ज्वलित दीपक (दिवली) रखा जाता है। दर्पण, कंघी, हलदी-कुमकुम, मंगलसूत्र और वायणाडोरी का अलंकार भी अर्पण किया जाता है।

 

महिलाओं द्वारा डोरीबंधन स्तोत्र-पाठ के साथ किया जाता है। सुपारी के फूल या अन्य फूलों को एक निश्चित बिंदु से प्रदक्षिणा करते हुए, बहुरंगी धागे (१६, ९, ७ या ५ गाँठ) पर गूंथा जाता है। डोरी को फिर गले में पहना जाता है या अपनी बायीं कलाई में बाँधा जाता है।

 

इसके बाद वायणा पूजा की जाती है। गौरीजी को नमस्कार करने के बाद फूल और चावल के दाने (अक्षत) अर्पित किए जाते हैं। एक थाली ( पलेरू) में नारियल, अक्षत, हल्दीकुमकुम, सुपारी, पान के पत्ते अर्पित किए जाते हैं। गौरी पूजा और चवती के लिए तैयार संपूर्ण नैवेद्य का भोग गौरी को लगाया जाता है । फिर चवती के लिए तैयार नैवेद्य, अगले दिन भगवान गणेश को अर्पित करने हेतु पुनः भंडार में रखा जाता है (माँ गौरी को पता होना चाहिए कि उनके पुत्र गणेश क्या खावेंगे )! कुमकुम, वेणी (गूंथे हुए फूलों की चोटी) और गौरी को चढ़ाए गए फूलों को प्रसाद रूप से महिलाओं द्वारा बाद में उपयोग किया जाता है। सभी उपस्थित जन तीर्थ पंचामृत (दूध, पानी, शहद, चीनी और घी का मिश्रण) ग्रहण करते हैं। पूजा का समापन, प्रसन्नता, सुस्वास्थ्य, सुख-समृद्धि, स्वस्थ संतान, जीवनसाथी की दीर्घायु (अखंड सौभाग्य) और सारी त्रुटियों के लिए क्षमा माँगते हुए, देवी गौरी को समर्पित प्रार्थना के साथ होता है।

 

वायण के बाद महिलाएँ दोपहर के भोजन में चावल तथा अन्य व्यंजन स्वीकार करती हैं और शाम को उपवास (फलाहार) करती हैं। गौरी के लिए नैवेद्य की तैयारी में गेहूं के आटे या वरई से बनी पात्तोळयो, खीरे की खीर, खीरे का सलाद (कोच्चोळी), ५ तरह की हरी पत्तेदार सब्जियों की अलनी (लवणरहित) उपकरी, चावल-नारियल की खीर ( चेप्पी - बिना नमक या चीनी के) और कुछ लोग आम्बट (एक प्रकार की दाल)और फोड्यो (पकोड़े) भी बनाते हैं। चावल-नारियल की खीर और अलनी उपकारी दोनों ही बिना नमक के बनाई जाती हैं। देवी गौरी सौम्य व सरल स्वरूपा हैं, तदनुसार उनका नैवेद्य भी सादा, सरल होता है।

 

चवती : अगले दिन (भाद्रपद महीने में शुक्ल पक्ष की चतुर्थी होने के कारण), देवी गौरी के पुत्र भगवान गणेश का आगमन बड़ी धूमधाम और भव्यता के साथ मनाया जाता हैऐसा कहा जाता है कि वे अपनी माता को वापस कैलाश पर्वत पर ले जाने के लिए आते हैं। ज्ञान, समृद्धि और सौभाग्य के देवता श्री गणेश अत्यंत जनप्रिय हैं। सभी बाधाओं और विपत्तियों के निवारक होने के कारण, किसी भी शुभ कार्य को आरंभ करने से पहले उनका आवाहन किया जाता है। भक्त भगवान गणेश की मूर्ति घर लाते हैं और पारिवारिक परंपरा या संकल्प के अनुसार डेढ़ दिन,  ३ , ५ , ७ या १० दिनों के लिए विशेष पद्धति से पूजा करते हैं।

 

गणेश-स्थापना : पुजारी प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं और मूर्ति पर रक्त-चंदन का लेपन किया जाता है। कुछ चित्रापुर सारस्वत (आमची ) परिवार घरों में गणेश के रूप में हल्दी के पानी में शेंडी के साथ निमज्जित कर सुखाये गए बड़े नारियल का उपयोग करते हैं। उभार के चारों ओर सफेद चाक से एक परिधि-चक्र, दोनों आँखों पर काजल और मुख-रंध्र में सिंदूर लगाया जाता है।

 

गणेश का प्रतीक नारियल, उपासक की ओर दर्शित एक साफ चपटे केले के पत्ते पर चावल के एक छोटे से ढेर पर स्थापित किया जाता है। नारियल के चारों ओर रेशमी धोती और अंगवस्त्र पहनाया जाता है। धोती और अंगवस्त्र की अनुपलब्धि में, बीच बीच में लाल कुमकुम से रंगी हुई रूई की एक छोटी माला बनाई जाती है, जो नारियल के ऊपर ज़ांवीन ( जनेऊ /पवित्र धागा) की तरह तिरछी पहनाई जाती है। उन्हें अक्सर विशेष रूप से उन्हीं के लिए रखे गए आभूषणों से सजाया जाता है। फूलों की एक माला और विशेष रूप से उनके प्रिय जासौन (हिबिस्कस) पुष्पों को कंठ में पहनाया जाता है। गणेश पूजा में दूर्वा का विशेष महत्व है और गणेश के गले में दूर्वा की माला भी चढ़ाई जाती है।

 

यदि पर्याप्त दूर्वा उपलब्ध नहीं है, तो २१ दूर्वा एक साथ बाँधकर चढ़ाते हैं। गणेशपूजन में आमतौर पर लगभग डेढ़ घंटे का समय लगता है, जहाँ पूरा परिवार एक साथ प्रार्थना करता है। पूजन के दौरान, १०८ दूर्वा और १०८ बेलपत्र चढ़ाए जाते हैं और इस पूजन का समापन कुंकुमार्चन के साथ होता है।

 

गणेशजी भोजन-प्रिय माने जाते हैं, अतः उनके नैवेद्य में २१ खाद्य पदार्थों का एक विस्तृत समर्पण किया जाता है, जिसका आनंद बाद में प्रसाद रूप से परिवार और मित्र भी उठाते हैं। प्रसाद भोजन की तैयारी में अंबोडे, करेले की घश्शी, आलू-सुक्कें, भिंडी-उपकरी, काकडि-कोच्चोळी, कोलोकेसिया भाजी, पत्रडो (वैकल्पिक रूप से घश्शी के साथ), चटनी के साथ खोट्टे, मडगणें, विभिन्न प्रकार के पकौड़े, सेंवई की खीर वगैरह होते हैं।

 

नाश्ते के पकवानों में आमतौर पर चकली, नेवर्यो, गुड़ के लड्डू, मोदक, पंचकदाई और उड़द की दाल के आंबोडे होते हैं। २१ मोदक विशेष रूप से दिवली (दीपक) के रूप में बनाए जाते हैं जिन्हें प्रज्ज्वलित कर भगवान गणेश की आरती के लिए उपयोग किया जाता है और आरतियाँ बड़े उत्साह और भक्ति के साथ गाई जाती हैं।

 

पूजा के अंतिम दिन सबसे पहले नारियल-गौरी को थोड़ा सा हिलाकर माँ गौरी का विसर्जन किया जाता है। भगवान गणेश का विसर्जन नारियल (या मूर्ति) को उसके स्थान पर ही थोड़ा मोड़कर होता है, जिसमें प्रतिभागी उत्साहपूर्वक "गणपति बाप्पा मोरया, पुढच्या वर्षी लवकर या "  का जयकारा लगाते हैं ( जैसे कि कह रहे हों – पुनर्मिलामः !!)। मूर्ति को एक रंगबिरंगे जुलूस में बाजे-गाजे की संगत में ले जाकर किसी जलाशय में विसर्जित किया जाता है। इस विसर्जन से पहले, कुमकुम मिले हुए लाल रंग के पानी में (लाट्ट्या / कुमकुमा-उद्दाक) को एक वाट्टें (एक उथली, रिम वाली थाली) में पूजा के मंच से कुछ दूरी पर इस तरह रखा जाता है कि परिवार के सदस्य इस पानी में नारियल और प्रज्ज्वलित दीपकों का प्रतिबिंब देख सकें। परिवार के वरिष्ठ सदस्य युवाओं को सलाह देते हैं – तीव्र प्रार्थना करने और ईश्वर से आशीर्वाद की याचना करने का यह अंतिम 'मौका' है।

 

इसके बाद कनिष्ठ सुमंगली महिलाओं द्वारा आयु में वरिष्ठ सुमंगली महिलाओं (सुवाशिनियों)को वायण अर्पण करने और स्वादिष्ट प्रसाद ग्रहण करने का समय आता है। गौरी और गणेश के प्रतीक नारियलों का उपयोग प्रसाद-स्वरुप मीठे व्यंजन बनाने के लिए किया जाता है जिसके लिये सभी तरसते हैं

 

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लेखिका – श्रीमती कुशल तल्गेरी बैलूर; सहयोग एवं छायाचित्र – श्रीमती उमा सवूर;  हिंदी भाषांतर – टीम अनुवाद

५ अगस्त २०२२

 

श्रावण मास अपने साथ कई त्यौहार लेकर आता है। इस शुभ महीने के दौरान, चित्रापुर सारस्वत ब्राह्मण समाज की विवाहित महिलाएँ अपने सौभाग्य अर्थात् दीर्घ और सुखी वैवाहिक जीवन के लिए, प्रति शुक्रवार और रविवार को "चूड़ी पूजा" करती हैं।

पौराणिक महत्व :

ऐसा माना जाता है कि सर्वप्रथम सीताजी ने अपने वनवास के दौरान वन्य फूलों और पत्तियों के साथ यह पूजा अर्पण की थी। इसके पश्चात् ही यह पूजा प्रचलित हुई। एक अन्य लोक कथा यह है कि वन्य फूलों को भी देवी-देवताओं को सजाने की तीव्र इच्छा हुई। करुणामय देवताओं ने वन्य फूलों की इच्छा यह कहकर पूरी की, कि विवाहित महिलाओं द्वारा श्रावण के महीने में एक गुच्छे में (कोंकणी भाषा में “चूड़ी “) बाँध कर पूजे जाने के पश्चात्, उन वन्य पुष्पों को देवी- देवताओं पर चढ़ाया जा सकता है।

 

चित्रापुर सारस्वत "चूड़ी पूजा" कैसे मनाते हैं :

परिवार की विवाहित महिलाएँ, प्रात: शीघ्र उठकर शीर्ष-स्नान कर पारंपरिक वस्त्र धारण करती  हैं। पाँच दूर्वा (तीन तृण वाली घास) और पाँच प्रकार के फूलों को इकट्ठे बाँधकर वे एक मनमोहक “चूड़ी” तैयार करती हैं। “पाँच” की यह संख्या बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारे पुराणों और इतिहास में यह पाँच पतिव्रता नारियों की प्रतीक है, जिनका स्मरण आज भी विवाह - संस्कार के प्रति श्रद्धा और प्रतिबद्धता के लिए किया जाता है - अहिल्या, मंदोदरी, द्रौपदी, तारा और सीता। इन्हें विवाहित महिलाओं के लिए आदर्श प्रेरणास्त्रोत माना जाता है।

परंपरागत रूप से, स्थानीय और वन्य पौधे ('अनवली', 'घण्टा माड्डो ', 'नेलानिल्ली' और 'पच्चकाना') और फूल ('रत्नगंधी'- मयूरपुष्प, 'सुगंधी'- जिंजर लिली, 'शंखपुष्प'- बटरफ्लाई पीज, 'करवीर'-पीला ओलियंडर और 'रथपुष्प'- पगोडापुष्प) का उपयोग किया जाता है। जिन शहरों में ये फूल और पौधे आसानी से उपलब्ध नहीं होते, वहाँ गुलाब, शेवंती, चँपा इत्यादि को दूर्वा के साथ बाँधकर चूड़ी तैयार की जाती है। आमतौर पर, चूड़ी विषम संख्याओं में बनाई जाती हैं -५, ७, ९, ११, १५, २१ इत्यादि। चूड़ी को अर्पण कर हम ईश्वर के प्रति, वर्षा-ऋतु में खिलनेवाले रंग- बिरंगे फूलों और हरियाली के लिए अपनी कृतज्ञता दर्शाते हैं।

 

चूड़ी
 
 
फूल और दूवाा

 

पूजा के लिए नैवेद्य भी तैयार किया जाता है। शुक्रवार को, आमतौर पर चावल रहित व्यंजनों का भोग चढ़ाया जाता है - उदाहरणार्थ- सूजी या सेवइयाँ की खीर, सूजी का हलवा, गुड़ से बने हुए मीठे पोहे, हयग्रीव (चना दाल, पानी, गुड़, कसा हुआ नारियल, घी, काजू, किशमिश, जायफल और इलाइची पाउडर से बना हुआ मीठा पकवान) आदि। रविवार के दिन,“उँड्लकाल” नामक एक विशेष मीठा नैवेद्य पकाया जाता है, जिसे चावल के आटे, पानी, नारियल के दूध, हल्के से नमक और गुड़ से बनाया जाता है। “चून”, एक मीठा व्यंजन है जो कसे हुए नारियल, गुड़ और इलाइची पाउडर से बनता है, अथवा “कणयेंद्री”- सूजी, गुड़, घी और नारियल के दूध से बना हुआ नैवेद्य भी रविवार के दिन बनाया जाता है।

 

चूड़ी और नैवेद्य के तैयार होने के पश्चात्, तुलसीजी के सामने एक सुंदर रंगोली रचाई जाती है। एक तांबूल के ऊपर, चूड़ी को एक सुपारी, नैवेद्य, हल्दी, कुंकुम, थोड़े से फूल और अक्षत के साथ रख कर तुलसीजी को अर्पण किया जाता है। पहली चूड़ी, दो तांबूल और सुपारी के साथ तुलसीजी को समर्पित कर आशीर्वाद की विनती की जाती है।

तुलसी पूजा के पश्चात्, घर के बाहर रंगोली सजायी जाती है।  दहलीज के दोनों ओर हल्दी और कुंकंम चढ़ाकर, दोनों ओर एक-एक चूड़ी रखी जाती है। शेष सीढ़ियाँ घर की अविवाहित कन्याओं के द्वारा सजायी जाती हैं। घर के भीतर की ओर उन्मुख होकर लक्ष्मी देवीजी की आरती करके उनसे घर में सुख- शांति के आशीर्वाद की प्रार्थना की जाती है। कई घरों में, “भाग्यदा लक्ष्मी बारम्मा” यह सुप्रसिद्ध पारंपरिक भजन गाया जाता है। इसके पश्चात्, सूर्य देवता को अर्घ्य अर्पण किया जाता है - सर्व प्रथम अक्षत समर्पित करके, सूर्य देवता का दर्शन करते हुए, उन्हें कलश से जल अर्पित किया जाता है। इसके दौरान, नवग्रह स्तोत्र (जपाकुसुम संकाशम… दिवाकरम्) के प्रथम श्लोक का उच्चारण किया जाता है।

(पृष्ठ १४७, श्री चित्रापुर स्तुतिमंजरी २०१९ (संस्कृत) 

फिर रसोईघर में चावल रखनेवाले डिब्बे को सजाया जाता है। उसे हल्दी और कुंकुम चढ़ाकर एक चूड़ी अर्पित की जाती है। परंपरागत रूप से, गाँवों में छाँछ की मथनी खव्लॉ एक खूँटी  से बंधी हुई रहती है। उस खूँटी और घर के कुएँ को भी एक -एक चूड़ी अर्पित की जाती है।

रविवार के दिन, एक साफ, धुले हुए तांबूल या केले के पत्ते के पिछले भाग पर, सात पत्थर रखे जाते हैं। प्रत्येक पत्थर को हल्दी- कुंकुम से लेप कर उस पर एक चूड़ी रखी जाती है। कहा जाता है कि यह सप्तर्षि-पत्नियों के प्रति सम्मान और उनसे आशीर्वाद-याचना का प्रतीक है।

श्रावण के पहले शुक्रवार को घर के मंदिर में कुलदेवी/देवता के लिए एक चूड़ी रखी जाती है। एक चूड़ी, स्थानीय मंदिर में क्षेत्र देवता को अर्पित की जाती है। परिवार की दिवंगत सुहागिनों का स्मरण करके उन्हें भी एक एक चूड़ी अर्पित की जाती है। अंत में घर की वरिष्ठ महिलाओं को तांबूल और सुपारी के साथ चूड़ी अर्पित करके उनका आशीर्वाद पाया जाता है। महिलाएँ एक-दूसरे के घर जाकर भी वरिष्ठ महिलाओं को चूड़ी अर्पित करती हैं। यह परंपरा, पारिवारिक और सामाजिक संबंधों को और भी दृढ़ करने में समर्थ हुई है।

नवविवाहित दुल्हन की पहली चूड़ी पूजा उसके मायके में आचरित की जाती है। माँ अपनी बेटी को अपने साथ रिश्तेदारों के घरों में ले जाती है, जहाँ दुल्हन उम्र में स्वयं से बड़ी महिलाओं को चूड़ी प्रदान करती है। वे उसे प्रेमपूर्वक उपहार और आशीर्वाद प्रदान करती हैं। विवाह के दूसरे वर्ष में बेटी अपनी सास के साथ पूजा करती है, जो फिर उसे अपने साथ रिश्तेदारों के घर ले जाती हैं।

चूड़ी - पूजा एक बहुत ही सुंदर परंपरा है जो न केवल सामाजिक संबंधों को अपितु वैवाहिक जीवन को भी, देवी- देवताओं और वरिष्ठों के आशीर्वाद से और अधिक सशक्त करने में भी मदद करती है।

 

मूल लेख - सुनेत्रा नागरकट्टी

हिंदी भाषांतर - टीम अनुवाद

१३ जुलाई, २०२२

गुरु पूर्णिमा "चातुर्मास" के प्रारंभ की सूचक (तिथि) है, जिसका शाब्दिक अर्थ है, चार महीने और विशेष रूप से वर्षा ऋतु के। इस अवधि का उपयोग साधकों और संन्यासियों द्वारा साधना व अनुष्ठानों (जप, तप, ध्यान आदि धार्मिक तपस्याओं का अभ्यास) के लिए किया जाता है। संन्यासियों के लिए चातुर्मास के आचरण का एक और तरीका भी है, हाँ यह चार पखवाड़े तक मनाया जाता है, आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा) से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा (सीमोल्लंघन / उटांवची पुन्नव) तकहमारी चित्रापुर मठ परंपरा के अनुसार हमारे धर्म गुरु मठाधिपति चार पखवाड़ों (पक्ष) अर्थात दो महीने के चातुर्मास व्रत का पालन करते हैं। चातुर्मास व्रत हमारे पूज्य स्वामीजी द्वारा हर वर्ष दो माह की यह संपूर्ण अवधि हमारे पूर्वाचार्यों के पवित्र समाधि स्थलों में से किसी एक स्थल पर सतत निवास करते हुए मनाया जाता है।

गृहस्थों के लिए यह अवधि दुगनी लाभप्रद है उन्हें अपने गुरु की सेवा और श्रवण, मनन, चिंतन, पूज, भजन और जप आदि साधनाओं का अभ्यास गुरु के मार्गदर्शन और निगरानी में करने का सुअवसर मिलता है

 इस पवित्र अवधि में परम पूज्य स्वामीजी  न केवल स्वयं अपना अनुष्ठान करते हैं, बल्कि उपनिषदों, भगवद्गीता, स्तोत्र, या किसी अन्य आध्यात्मिक ग्रंथ के विषयों पर स्वाध्याय के माध्यम से साधकों को प्रबुद्ध करते हैं। हम दो महीने की अवधि के दौरान उनके आशीर्वचनों से भी लाभान्वित होते हैं। पूज्य स्वामीजी  परामर्श सत्रों के माध्यम से साधकों की शंकाओं को दूर करते हैं और उनकी आध्यात्मिक साधनाओं में प्रगति हेतु मार्गदर्शन भी करते हैं। अतः हम चित्रापुर सारस्वत साधक वैयक्तिक व सामूहिक साधना हेतु चातुर्मास की इस अवधि का पालन करते हैं।

चातुर्मास के दौरान नियमपूर्वक अपनी साधनाओं का सतत अभ्यास करने से साधक और भी अधिक आध्यात्मिक लाभ  प्राप्त करते हैं। इन साधनाओं के अंतर्गत इष्ट-मंत्र जप की अतिरिक्त मालाएँ करने अथवा चित्रापुर गुरुपरंपरा चरित्र के  पाठ का संकल्प भी हो सकता है। नियमों के अंतर्गत कुछ खाद्य पदार्थों से परहेज करने, या अन्य कोई तपस्या करने का संकल्प हो सकता है, जैसे जमीन पर सोना, हर दिन एक सुनिश्चित अवधि के लिए प्राणायाम करना इत्यादि चातुर्मास व्रत सरल हो या कठिन, आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा अर्थात गुरु पूर्णिमा पर इसका प्रारंभ हो और भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को इसका समापन होना चाहिए।

 साधक एक संकल्प लेकर अपना निर्णय व्यक्त करता है और ईश्वर के विग्रह या चित्र के सम्मुख प्रार्थना करता है, कि "हे  ईश्वर, मैंने आपकी उपस्थिति में यह व्रत स्वीकार किया है आपके आशीर्वाद से मैं इसका त्याग किए बगैर निर्बाध रूप से सफलता प्राप्त कर सकूं।चातुर्मास के अंतिम दिन साधक अपने व्रत की सफलतापूर्वक पूर्ति हेतु ईश्वर को उनकी कृपा के लिए धन्यवाद देता है और व्रत के दौरान हुई सारी त्रुटियों के लिए क्षमा माँगता है।

व्रत हमारे शारीरिक और आध्यात्मिक शक्ति वर्धन का सशक्त माध्यम है। यह कुछ अवांछित आदतों को ‘ना ‘ कहने की क्षमता को भी दृढ़ करता है, हमारे संकल्प और आत्मविश्वास को बढ़ाता है, हमें और भी अधिक कठिन नियम स्वीकार करने के लिए प्रेरित करता है और इस प्रकार हम धीरे-धीरे निश्चित रूप से अधिक तीव्र, कृतकृत्य साधना की ओर अग्रसर होते हैं।

हमारी साधना गुरु की कृपा से ही सफलतापूर्वक आरंभ, प्रगतिशील एवं पूर्ण हो सकती है। हमें हर कदम पर गुरु के उपदेशों व मार्गदर्शन की आवश्यकता है, ताकि हम सही दिशा में और सही गति से आगे बढ़ सकें। यह गुरुशक्ति ही है जो सतत निरंतर रक्षण और मार्गदर्शन द्वारा मनुष्य को मानव जन्म के लक्ष्य, अर्थात् आत्मज्ञान तक पहुँचने में सहायता करती है। यह स्वाभाविक ही है कि हम सभी ब्रह्मविद्या-प्रवर्तक गुरुओं का स्मरण कर उन के प्रति आदर एवं कृतज्ञता प्रकट करें, जो ब्रह्मतत्त्व के ज्ञान का प्रसार करते हैं। परम पूज्य स्वामीजी गुरु पूर्णिमा पर गुरु मंडल / व्यास मंडल का पूजन कर इसी भावना को व्यक्त करते हैं  

इस दिवस का प्रारंभ भगवान भवानीशंकर सुप्रभातम् से होता है और लगभग ८ बजे परम पूज्य स्वामीजी  उस मठ में श्री चित्रापुर गुरुपरंपरा के हमारे गुरुओं की समाधि का जलाभिषेक करते हैं, जहाँ चातुर्मास व्रताचरण किया जा रहा है।  गुरु समाधियों के जलाभिषेक के साथ साथ पूज्य स्वामीजी उस मठ में प्रतिष्ठित अन्य देवी- देवताओं का भी जलाभिषेक करते हैं।

 तत्पश्चात् प्रधान अर्चक प्रार्थना करते हुए सभी साधकों की ओर से निम्नलिखित शब्दों के साथ संकल्प लेते हैं  ...

"परम पूज्य स्वामीजी अपने चातुर्मास व्रताचरण के लिए यहाँ सुखपूर्वक निवास कर सकें। हम वास्तव में इसे अपना सौभाग्य और आपका आशीर्वाद मानते हैं और अपनी सेवा करने का यह सुअवसर प्रदान करने के लिए हम परम पूज्य स्वामीजी के आभारी हैं। हम प्रसन्नतापूर्वक अपनी पूरी क्षमता से परम पूज्य स्वामीजी की सेवा करेंगे।"

सामूहिक प्रार्थना के पश्चात् पूज्य स्वामीजी अपने कुटीर में लौटते हैं सुबह १० बजे व्यास मंडल पूजन के लिए परम पूज्य स्वामीजी का आगमन होता है इस गुरुपूर्णिमा पूजन में लगभग २ घंटे लगते हैं और इस पवित्र अवसर का अनुभव करने के लिए हमेशा साधक भारी संख्या में एकत्रित होते हैं।

 गुरु पूर्णिमा पूजन में चार अंश होते हैं:

. श्री महागणपति पूजन

. ब्रह्मादि मंडल पूजन

. व्यास मंडल पूजन

. नियमित गुरु पूजन

 गुरुपूर्णिमा पूजन :-

प्रधान संकल्प के बाद, हमारे भट्ट मामों द्वारा मन्युसूक्त-पाठ के साथ पूज्य स्वामीजी द्वारा प्रार्थनापूर्वक पूर्वांग पूजा एवं श्री महागणपति पूजा, बिना किसी बाधा के गुरु पूर्णिमा पूजन को पूरा करने हेतु की जाती है इसके पश्चात् ५७ देवताओं के ब्रह्मादि (यह ‘सर्वतोभद्र मंडल ‘ के नाम से भी जाना जाता है) मंडल का पूजन किया जाता है।

 

 

 रंग-बिरंगे रंगोली पाउडर के साथ एक बोर्ड पर एक मंडल (जैसा ऊपर दिखाया गया है) बनाया जाता है, जिसमें हमारे ब्रह्मांड के प्रत्येक देवता के लिए एक निश्चित स्थान है। प्रत्येक देवता का आवाहन उनके नामों से संबंधित मंत्रोच्चार से किया जाता है। इनमें ब्रह्मा, सोम, इंद्र, अग्नि, अष्टवसु, कश्यप, अत्रि, चामुंडा, वाराही, गदा, त्रिशूल और गंगा सम्मिलित हैं।  प्रत्येक देवता का प्रतिनिधित्व करने के लिए शालिग्राम का उपयोग किया जाता है और उन्हें मंडल पर क्रम से उनके निर्धारित स्थानों पर प्रतिष्ठित कर उन्हें गंध, अक्षत और फूल चढ़ाए जाते हैं।

ब्रह्मादि मंडल के पूजन के बाद व्यास मण्डल/गुरु मण्डल का पूजन प्रारम्भ होता है।

 गुरु या व्यास मंडल

 

 

 

 

व्यास मंडल को बीच में एक छोटे से वृत्त के चारों ओर आठ पंखुड़ियों वाले एक पुष्प के रूप में दर्शाया जाता है, जो बोर्ड पर एक वर्ग में चित्रित किया जाता है। पंखुड़ियों और वृत्त में विविध रंगों वाले अनाज के दाने भरे जाते हैं और पुष्प के बाहर के भाग रंगोली से सजाए जाते हैं।

 परम पूज्य स्वामीजी व्यास पूर्णिमा पर हमारे अपने मठ संप्रदाय द्वारा निर्धारित सुनियोजित तरीके से गुरुशक्ति का आवाहन करते हैं। गुरुशक्ति सदियों से अगणित गुरु-रूपों के माध्यम से प्रकट हुई है, उन्हें सूचीबद्ध करना असंभव है। अतः  नौ गुरुओं के पंचक (गुरु और उनके चार प्रधान शिष्य) का स्वामीजी  द्वारा बड़ी श्रद्धा के साथ आवाहन किया जाता है।

ये नौ पंचक (प्रत्येक समूह में पाँच अर्थात् गुरु और उनके चार प्रधान शिष्य) इस प्रकार हैं। 

हाँ दिशाएँ दक्षिणामूर्ति पंचक के संदर्भ में दर्शाई गई हैं।

. बीच में दक्षिणामूर्ति पंचक

() सनक

() सनातन

() सनतकुमार

() सनंदन

. उत्तर में ब्रह्म पंचक

() अथर्वांगीरस

() श्वेताश्वतर

() भारद्वाज

() नारद

ईशान्य (पूर्वोत्तर) में वशिष्ठ पंचक

() याज्ञवल्क्य

() दत्तात्रेय

() श्वेतकेतु

() पराशर

. पूर्व में व्यास पंचक

() सुमंतु

() जैमिनी

() पैल

() वैशंपायन

. आग्नेय (दक्षिण पूर्व) में कृष्ण पंचक

() भीष्म

 () शुक

() गौड़पाद

() गोविंदपाद

. दक्षिण में भाष्यकार पंचक

() विश्वरूप (सुरेश्वराचार्य)

() पद्मपा

() स्तामलक

() तोकाचार्य

. द्रविड़ाचार्य पंचक नैऋत्य (दक्षिण पश्चिम) में

() विवरणाचार्य

() विद्यारण्य

() आनंदगिरि

()अनुभूतिस्वरुपाचार्य

. पश्चिम में गुरु पंचक

() परम गुरु

() परमेष्ठी गुरु

() परात्पर गुरु

() समस्त ब्रह्मविद्या संप्रदाय प्रवर्तक

. वायव्य (उत्तर पश्चिम) में आत्म पंचक

() अंतरात्मा

() परमात्मा

() सर्वात्मा 

() ब्रह्मात्मा

मंडल में गुरु और उनके चार शिष्यों को यथाक्रम उनकी पंखुड़ियों में प्रतिष्ठित कर उनकी पूजा की जाती है। यहाँ भी गुरुओं और शिष्यों के प्रतीक स्वरुप शालिग्रामों का उपयोग किया जाता है। बीच का वृत्त श्री दक्षिणामूर्ति का स्थान है, शिव का गुरु रूप, जिन्हें प्रायः चार हाथों वाले - एक में रुद्राक्ष माला, एक में पुस्तक, एक में अमृत कलश व एक हाथ  चिन्मुद्रा में, वटवृक्ष के नीचे आसीन रूप में चित्रित किया जाता हैपूज्य स्वामीजी  अपने स्फटिक-शिवलिंग और श्री राजराजेश्वरी देवी के विग्रह को वृत्त में प्रतिष्ठित करते हैं। इस मंडल में कुल नौ गुरुओं और उनके छत्तीस शिष्यों को उनसे संबंधित मंत्रों के साथ गंध, अक्षत और पुष्प चढ़ाकर पूजा की जाती है।

गुरु मंडल पूजा के पश्चात्, स्वामीजी  नियमित गुरु पूजन आरंभ करते हैं। इस पूजन के दौरान वहाँ उपस्थित भक्त स्वामीजी  के पीछे पीछे श्लोकों, प्रार्थनाओं और अष्टोत्तर शतनामावली को दोहराते हैं। स्वामीजी  गुरु अष्टोत्तर शतनामावली के साथ साथ बिल्वपत्र और वेदव्यास अष्टोत्तर शतनामावली के दौरान तुलसी पत्र अर्पित करते हैं।

 पूजा के अंत में परम पूज्य स्वामीजी भक्ति से सराबोर श्री वेदव्यास अष्टक का पाठ करते हैं और अन्य सभी साधक इसे उनके पीछे पीछे दोहराते हैं। स्वामीजी इस वेदव्यास अष्टक का अर्थ भी बताते हैं, जिसमें गुरु व्यासाचार्य की स्तुति उनके सभी गुणों के साथ की जाती है। सुबह के सत्र का समापन श्रीपादुका पूजन और परम पूज्य स्वामीजी द्वारा तीर्थ वितरण के साथ होता है।

शाम को धर्म सभा आयोजित की जाती है और गुरु पूर्णिमा के लिए एकत्र हुए सभी लोग परम पूज्य स्वामीजी के आशीर्वचन को सुनने के लिए उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं। गुरु पूर्णिमा का पूरा दिन गुरु और गुरु-शक्ति के स्मरण को समर्पित होता है। सुबह का समय पैंतालीस गुरुओं का स्मरण करते हुए व्यतीत होता हैसंध्याकाल हमारी गौरवशाली श्री चित्रापुर गुरु-परंपरा के ग्यारह गुरुओं को दीपनमस्कार के पाठ के माध्यम से स्मरण करने का समय है। गुरु पूर्णिमा समारोह का समापन रात्रि की मंगलारती के साथ होता है, जिसके पश्चात् हमारे आराध्य देवता भगवान भवानीशंकर महादेव की अष्टावधान पूजा होती है।

 इस प्रकार पूजन, भजन, जप और परम पूज्य स्वामीजी के बहुमूल्य उपदेशों का श्रवण, आदि उपासना के सभी विभिन्न  प्रकार हमारे गुरु पूर्णिमा दिवस को आध्यात्मिक रूप से समृद्ध बनाते हैं। साधक पूरे चातुर्मास और आने वाले वर्ष में अपनी साधना करने के लिए पूरी तरह से उत्साहित होते हैं। साधना में हमारे श्रद्धा पूर्ण सच्चे प्रयासों से ही हमारे गुरु प्रसन्न होते हैं। तीव्र साधना से चित्त में एकाग्रता आती है, जो अंततोगत्वा हमें मानव जन्म के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने की ओर ले जाती है – आत्मज्ञान या मोक्ष, जो गुरु-अवतरण का उद्देश्य है।       

 

 
 
"प्रसन्नोऽस्तु गुरु सदा" यही हमारी सच्ची प्रार्थना  
 

गिरीश सारस्वत
गाजियाबाद

 

।। ॐ श्रीगुरुभ्यो नमः ।। श्रीभवानीशंकराय नमः ।। श्रीमात्रे नमः ।।

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सारस्वत ब्राह्मण समाज गाजियाबाद के इतिहास में दिनांक ७ जून २०२२ का दिन स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा । अध्यात्म के क्षितिज में दैदीप्यमान सितारे की भाँति शिखर पर विराजमान सारस्वत शिरोमणि संत, श्री चित्रापुर मठ के ग्यारहवें मठाधिपति परम पूज्य श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी के पावन चरण कमल इस दिन हमारे यहाँ पड़े और उनके श्रीमुख से जीवनोपयोगी एवं कल्याणकारी आशीर्वचन सुनकर हम धन्य हो गए ।

सारस्वत ब्राह्मण समाज कल्याण समिति (रजि.) गाजियाबाद के तत्वाधान में विजय नगर के उत्सव भवन में आयोजित कार्यक्रम में अपने श्रीमुख से उपस्थित जन समूह को आशीर्वचन प्रदान करते हुए परम पूज्य मठाधिपति श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी ने कहा कि जप, तप और दान मनुष्य के लिए अत्यंत कल्याणकारी हैं । जप, तप और दान के बिना मानव जीवन व्यर्थ है । उन्होंने कहा कि मनुष्य को जीविकोपार्जन के लिए श्रेष्ठ कर्म करते हुए नित्य उपासना अवश्य करनी चाहिए । बिना उपासना के लौकिक से अलौकिक की मंगलमय यात्रा असंभव है । इसलिए हमें नित्य योग, प्राणायाम का अभ्यास करते हुए उपासना करनी चाहिए और जप, तप करते हुए दान भी करना चाहिए । इसी में प्राणिमात्र का कल्याण निहित है । उन्होंने बताया कि सांसारिक उपलब्धियों की प्राप्ति हेतु प्रभुचरणों में संकल्प समर्पित कर पूरे मनोयोग से निष्ठा और लगन के साथ मनोवांछित लक्ष्य प्राप्ति हेतु प्रयत्न करने से सफलता अवश्य मिलती है । श्रीमद्भगवद्गीता एवं दुर्गासप्तशती के पाठ एवं स्वाध्याय पर भी उन्होंने बल दिया । मधुर कंठ से कर्णप्रिय स्वर में उनके द्वारा गाया हुआ भजन (श्री जगदंबे सरस्वती....) सुनकर उपस्थित जनसमूह पूरे भक्तिभाव से झूम उठा । सुधबुध और भूख प्यास भूलकर सभी इस परम पावन और दुर्लभ सुखद संयोग के एक एक क्षण का पूर्ण लाभ लेने के लिए आतुर थे । कोई कह रहा था कि यह हमारे जन्मजन्मांतर के संचित पुण्यों का ही फल है जो कि हमें  इतने श्रेष्ठ सारस्वत संत मिले हैं, तो कोई कह रहा था कि अद्भुत, दिव्य एवं भव्य आयोजन - ऐसा लग रहा है कि मानो आत्मा के परमात्मा से मिलन की प्रक्रिया का साक्षात्कार हो । हमें घर बैठे ऐसी महान विभूति की चरण वंदना कर स्वयं को धन्य बनाने का अवसर मिला । क्या बूढ़े,क्या बच्चे ! क्या महिला और क्या पुरुष ! हर कोई बिना पलक झपके एकटक सारस्वत सद्गुरु को निहारते हुए बस यही चाहता था कि ये घड़ी की सुई यहीं ठहर जाए और अनंतकाल तक यूँ ही अनवरत जारी रहे - भजन, कीर्तन और आशीर्वाद का यह सिलसिला ।

आशीर्वचन कार्यक्रम समापन के बाद गाजियाबाद के अतिरिक्त उत्तरप्रदेश के नोएडा, अलीगढ़ , हाथरस, आगरा, मथुरा फिरोजाबाद, हापुड़ व दिल्ली तथा राजस्थान से पधारे हुए सभी श्रद्घालु भाव विभोर होकर पुनः शीघ्र पूज्य स्वामीजी के दर्शन लाभ व निकट भविष्य में होने वाले इसी तरह के कार्यक्रमों की जानकारी चाहते थे । कोई पूज्य स्वामीजी के आमंत्रण के बाद दर्शन और सत्संग का पुनः लाभ लेने के लिए पुण्य पावन भूमि शिराली और कार्ला जाने की योजना बनाने लगा , तो कोई पूज्य स्वामीजी के कार्यक्रमों की वीडियो इत्यादि की जानकारी लेने लगा , तो कोई पूज्य स्वामीजी के साथ ही जाने की बात कहने लगा । एक विलक्षण संत की विशुद्ध आत्मा, सचमुच ईश्वर का ही तो रूप है । भला इस पावन बेला का साक्षी कौन नहीं बनना चाहेगा ?

कार्यक्रम समापन के बाद भी मन में ढाढस बंधा हुआ था कि कोई बात नहीं ! अभी तो पूज्य स्वामीजी भिक्षा ग्रहण करेंगे । इसी बहाने भगवत्स्वरूप गुरुदेव के एक दो बार दर्शन तो हो ही जायेंगे । लेकिन यकायक लगने लगा कि अब हमारे पुण्य बस  इतने ही थे । दुखी मन और सजल नयनों से सारस्वत सद्गुरु की विदाई का क्षण भी आ पहुँचा ! गुरुदेव की खड़ाऊँ की चट-चट की आवाज विचलित करने लगी । ऐसा कौन अभागा होगा जो भगवत्स्वरूप गुरूदेव को अपनी आँखों से ओझल होने देगा ? लेकिन काल का चक्र कब कहाँ रुका है ?

 बड़े भारी मन से क्षमायाचना करते हुए पुनः आगमन की प्रार्थना के साथ सभी ने दण्डवत् प्रणाम करते हुए जयोद्घोष के साथ परम पूज्य श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी को विदा किया ।

इस भौतिक शरीर से दूर जाते हुए परम पूज्य गुरुदेव की आशीर्वाद वाली मुद्रा को हृदय में धारण करके हम निरंतर प्रतीक्षा में हैं कि कब पुनः आएंगे हमारे गुरुवर और कब होंगे भगवत्स्वरूप गुरुदेव के नयनाभिराम दर्शन फिर एक बार  ?

सारस्वत धाम, हरिद्वार – उद्घाटन समारोह
(वृत्तांत – डॉ. चैतन्य गुल्वाड़ी)

 

चिरकाल से राजस्थान प्रांत के हमारे बंधु-भगिनियों का यह अत्यंत आत्मीय स्वप्न था कि हरिद्वार के पुण्य क्षेत्र में हमारा अपना एक निवास स्थल हो, विशेषकर उन वरिष्ठ यात्रियों हेतु, जो चार धाम की तीर्थ यात्रा का संकल्प कर यहाँ तक पहुंचते हैं। सौभाग्यवश श्री गणपतलालजी सारस्वत (पप्पूजी) के सुयोग्य नेतृत्व में, उनके सहयोगियों के अनवरत परिश्रम से यह स्वप्न शीघ्र ही साकार हुआ, जिन्होंने आवश्यक धनराशि के संचय से हरिद्वार के बीचोंबीच सारस्वत यात्रियों के लिए एक सुंदर तिमंजिले आवास गृह के नवनिर्माण में कोई कसर बाकी नहीं रखी।

भवन के तैयार होते ही श्री चित्रापुर मठ के मठाधिपति श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी को हरिद्वार के इस पावन सारस्वत धाम के उद्घाटन  हेतु आमंत्रित किया गया। परम पूज्य स्वामीजी ने उनके  विनम्र आमंत्रण को बड़े ही सौजन्य से स्वीकार किया और वे २ जून २०२२ के शुभ दिन हरिद्वार पहुँचे। परम पूज्य स्वामीजी एवं उनके सेवक दल के निवास के लिए निकट ही नकलंक धाम में सुव्यवस्था थी, जहाँ चार दिनों के एक शिविर का भी आयोजन किया गया था। हर दिन प्रातःकाल ही परम पूज्य स्वामीजी उपासना पर विशेष ध्यान देते हुए श्रीमद्भगवद्गीता के बारहवें अध्याय (भक्ति योग) पर स्वाध्याय सत्र का संचालन करते। शिविर स्थल में स्थित वातानुकूलित विशाल कक्ष में सारस्वत भक्तों की भीड़ इकट्ठी हो जाती। उनके प्रफुल्लित चेहरे भविष्य में अपने आध्यात्मिक मार्गदर्शन हेतु सारस्वत गुरु प्राप्ति के हर्षोल्लास से दमकते हुए दिखायी देते थे। मध्याह्न में सुप्रसिद्ध कथाकार दीदी कनकलताजी पाराशर द्वारा  “नानी बाई का मायरा “ प्रस्तुत किया जाता। रात्रि का समय पवित्र तुलसीरामायण के पाठ और भक्ति-भजन सहित “जागरण” में बीतता।  

शुक्रवार, ३ जून की सायंकाल को सभागार में एकत्रित भक्तगणों को भगवान भवानीशंकर महादेवजी के दर्शन तथा परम पूज्य स्वामीजी के पावन हस्तों से किए गए देवी पूजन में सम्मिलित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। माँ भगवती की पूजन-विधि के श्लोकों के  भक्तिपूर्वक पाठ एवं उपासना में भाग लेकर उनकी प्रसन्नता की सीमा न रही। अगले दिन की संध्या को परम पूज्य स्वामीजी की इच्छानुसार परस्पर परिचय के सत्र का आयोजन हुआ, जिसमें दूर दूर के प्रान्तों – महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, दिल्ली इत्यादि से पधारे हुए सारस्वतों ने संक्षिप्त रूप से पूज्य स्वामीजी को अपना अपना परिचय दिया। इसके उपरांत परम पूज्य स्वामीजी द्वारा गाये गए तीन मधुर भजनों पर समस्त भक्तों द्वारा मिलकर गरबा नृत्य प्रस्तुत किया गया। रविवार प्रातःकाल डॉ. चैतन्य गुल्वाड़ी ने एक संक्षिप्त अंतर्जालीय प्रस्तुतीकरण के माध्यम से सभी सारस्वतों को श्री चित्रापुर मठ एवं इसकी विभिन्न गतिविधियों से परिचित कराया। हर दिन लगातार  लगभग ६०० प्रतिभागियों को भंडारा में राजस्थान के विशेष एवं स्वादिष्ट व्यंजनों सहित भोजन भी करवाया जाता था।

और देखते ही देखते वह अंतिम दिन भी आ पहुँचा – सोमवार, ६ जून जब पारंपरिक रंगबिरंगे परिधानों  में महिलाएँ अपने सिर पर सुन्दर कलश रखे, नकलंक धाम के द्वार पर एकत्रित हुईं। परम पूज्य स्वामीजी को एक सुसज्जित बग्घी में विराजित किया गया, जिसे हाँकने का सौभाग्य प्राप्त कर एक सजा हुआ अश्व भी बिलकुल तैयार खड़ा था। तत्पश्चात् यह शोभा यात्रा संगीतमय वादकों के साथ, उच्च स्वरों में उद्घोषित जय-जयकारों के बीच धीमे धीमे हरिद्वार की गलियों से होते हुए उस शामियाने की ओर बढ़ी, जहाँ बड़े ही सुरुचिपूर्ण ढंग से सजे हुए सारस्वत धाम का उद्घाटन होने जा रहा था। सारस्वत धाम पहुँचने पर सुगंधित गुलाब की पँखुड़ियों के वर्षाव और वेदघोष के साथ परम पूज्य स्वामीजी का स्वागत किया गया। पूज्य स्वामीजी ने अपने पावन हस्तों से द्वार पर स्थित शिलालेख का अनावरण कर मंगल आशीर्वाद सहित सारस्वत धाम का उद्घाटन किया।  इसके उपरांत पूज्य स्वामीजी को संपूर्ण सारस्वत धाम का निरीक्षण करवा कर, हवन और अन्य शास्त्रोक्त विधियाँ संपन्न की गईं। अल्पाहार के पश्चात् परम पूज्य स्वामीजी नकलंक धाम के निवास स्थल को लौटे।

मध्याह्न की धर्म सभा डॉ. राम सारस्वत जी द्वारा ‘सभा प्रारंभ प्रार्थना’ से आरंभ की गई। डॉ. रामजी ने अपने भावपूर्ण वक्तव्य में पूज्य स्वामीजी के साथ मिले सौभाग्यशाली  सान्निध्य एवं  चित्रापुर सारस्वत समाज के साथ सत्संगों के माध्यम से हुए अपने अनुभवों को साझा किया। श्री चित्रापुर मठ की स्थायी समिति के अध्यक्ष, श्री प्रवीण कडले जी ने समस्त सारस्वत समाज का, श्री चित्रापुर मठ, शिराली और श्री दुर्गापरमेश्वरी मंदिर, कार्ला की ओर से स्वागत किया। परम पूज्य स्वामीजी ने अपने आशीर्वचन में श्री गणपतलालजी सारस्वत (पप्पूजी) और उनके सहयोगियों द्वारा किए गए निःस्वार्थ प्रयासों की प्रशंसा की, जिसके फलस्वरूप इस  सारस्वत धाम का निर्माण हो सका। पूज्य स्वामीजी ने , चित्रापुर सारस्वतों से जुड़कर एक संगठित सारस्वत समाज के निर्माण हेतु प्रदर्शित, राजस्थानी सारस्वत समाज की प्रेम और उत्साहपूर्ण लालसा पर अपनी प्रसन्नता प्रकट की।

इसके उपरांत परम पूज्य स्वामीजी की पावन, गौरवशाली उपस्थिति में सभी छोटे-बड़े दाताओं, स्वयंसेवकों तथा समिति के सदस्यों का शाल, पारंपरिक राजस्थानी पगड़ी, स्मरणिका तथा मालार्पण द्वारा सम्मान किया गया।

७ जून प्रातःकाल समस्त भक्तवृंद नकलंक धाम पर परम पूज्य स्वामीजी को भावभीनी बिदाई देने हेतु एकत्रित हुए , जहाँ से पूज्य स्वामीजी ने अपने अगले गंतव्य स्थल, दिल्ली के निकट ,गाजियाबाद की ओर प्रस्थान किया। 


।। ॐ नमः पार्वती पतये हर हर महादेव ।। 
 

 

लेख-लेखन  – डॉ. सुधा तिनैकर पाच्ची 
     हिंदी संस्करण : टीम अनुवाद  

समस्त विश्व में ऐसे महात्माओं के जन्मोत्सव मनाए जाते हैं, जिन्होंने मानवता के उत्कर्ष में योगदान दिया है। सनातन धर्मियों के लिए आदि शंकराचार्य जी का जन्म तत्कालीन  प्रचलित आध्यात्मिक दर्शनों के प्रति एक समग्र नवीन दृष्टिकोण का द्योतक सिद्ध हुआ है। हालाँकि आदि शंकराचार्यजी के वास्तविक जन्मकाल के विषय में विद्वानों के विभिन्न मत हैं, प्रायः यह मत सर्वमान्य है कि उनका जन्म वैशाख मास की शुक्ल पंचमी को हुआ था। आज भी यह शुभ दिवस अद्वैत दर्शन के सर्वोच्च गुरु को कृतज्ञता पूर्वक नमन करते हुए मनाया जाता है।
 
यद्यपि औपनिषदिक-शिक्षा अद्वैत- सिद्धांत पर आधारित है, आदि शंकराचार्यजी  के जन्म की कालावधि में वेदों के तात्पर्य का पूर्णतः खंडन हो रहा था। वेद-पूर्व अर्थात् पूर्व-मीमांसा दर्शन प्रचलित हो रहा था और समाज का ध्यान अधिकांश रूप से धार्मिक विधि विधानों की ओर ही निर्देशित किया जा रहा था। वेदों का मूलभूत तात्पर्य पूरी तरह से भुला दिया गया था।

ऐसी परिस्थिति में शंकर का जन्म केरल क्षेत्र में पूर्णा नदी के तट पर बसे ‘कालडी‘ नामक छोटे से गाँव के एक साधारण हिंदु परिवार में हुआ। ऐसी मान्यता है कि शंकर स्वयं भगवान  शिव के ही अवतार थे ।हम सभी उस घटना से अवगत हैं कि किस प्रकार शंकर ने संन्यास  लेने  हेतु अपनी विधवा माता से अनुमति प्राप्त की थी ।
 
संन्यासाश्रम में प्रवेश करने पर उन्हें अपने गुरु गोविन्दपादजी का सान्निध्य प्राप्त हुआ। केवल बत्तीस वर्षों के अल्प जीवनकाल में ही आदि शंकराचार्यजी जगदाचार्य बन गए। सनातन धर्म के प्रति उनका योगदान अगणित, अद्वितीय है ।

१. उनके जीवन काल में लगभग बहत्तर (७२ ) दार्शनिक मत प्रचलित थे। उन्होंने उन सभी को छह प्रमुख दर्शन-प्रणालियों में संकलित किया, जिससे समाज को बड़ी राहत मिली।
२. उन्होंने यह सिद्ध किया कि पूर्व-मीमांसा वेदों का परम लक्ष्य नहीं है। उन्होंने वेदांत के तात्पर्य का स्पष्ट रूप से विवेचन किया, जो केवल एक अद्वितीय शुद्ध चैतन्य को संपूर्ण सृष्टि के परम सत्य के रूप में प्रतिपादित करता है।अद्वैत को उस मूलभूत सिद्धांत के स्थान पर प्रतिष्ठित किया गया, जो प्रत्येक जीव को संसार से सदा के लिए मुक्ति की संभावना प्रदान करता है। उन्होंने प्रतिपादित किया कि “मोक्ष” केवल एक संभावना ही नहीं, अपितु यही परम सत्य है ।
३. उपनिषदों की यथार्थ शिक्षा को प्रतिष्ठित करने के लिए उन्होंने प्रस्थान-त्रय पर टिप्पणियाँ अर्थात् भाष्य का लेखन किया, जिसके कारण आज हम किसी भी भ्रांति के बिना वेदांत के  मूलभूत सिद्धांत को समझने में सफल होते हैं। 
४. उस कालावधि में श्रीयुत् बादरायण (व्यासाचार्य जी) द्वारा लिखित ‘ब्रह्मसूत्र’ की बड़ी  दोषपूर्ण व्याख्या की जा रही थी। शंकराचार्यजी ने ब्रह्मसूत्र पर अनुकरणीय भाष्य की रचना कर व्यासाचार्यजी  की कृति को उसके उचित रूप में पुनः प्रतिष्ठित किया।
५. अद्वैत का अध्ययन करने में असमर्थ साधकों के लिए उपासना हेतु उन्होंने कई स्तोत्रों की रचना की।
६. तत्कालीन भारतवर्ष की चार दिशाओं में चार विद्यार्जन केंद्र अर्थात् मठ स्थापित किए गए और उनके चार शिष्यों को वेदांत के संदेश का प्रचार-प्रसार करने का कार्य सौंपा गया।
७. आदि शंकराचार्य जी ने वेदों द्वारा उद्घाटित अद्वैत की शिक्षा हेतु उचित गुरु-शिष्य-परंपरा प्रणाली की स्थापना की।
८. बत्तीस वर्ष की आयु तक वे अखिल देश का परिभ्रमण कर अद्वैत को वेदों के एकमात्र सिद्धांत के रूप में स्थापित कर चुके थे। 
९. वे काश्मीर में सर्वज्ञ-पीठ पर आरूढ़ हुए, जो उस कालावधि के सर्वोत्कृष्ट दार्शनिकों के लिए ही स्थापित किया गया था।

यदि वेदों का यथार्थ संदेश आज भी सुरक्षित है, तो यह केवल आदि शंकराचार्यजी के मात्र बत्तीस वर्षों के अल्प जीवनकाल में किए गए योगदानों के कारण ही संभव हो सका है। उनकी कृतियाँ आज भी अपने विशुद्ध रूप में हमारे लिए उपलब्ध हैं, अतः उनके द्वारा रचित भाष्य सर्वोच्च प्रमाण माने जाते हैं। भविष्य में अनंत काल तक वैशाख शुक्ल पंचमी इस महान गुरु के प्रति कृतज्ञता अर्पित करने हेतु साधकों द्वारा मनाई जाती रहेगी ।

श्री चित्रापुर मठ , शिराली में सन २००८ में भगवान शंकराचार्य की प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा की गयी। तब से लेकर हर शंकर-जयंती को ‘भाष्य पठन’ एवं ‘तोटकाष्टकम्’ स्तोत्र पठन के साथ ‘श्रीशंकराचार्य-पूजन’ किया जाता है। पूज्य स्वामीजी उस समय जहाँ कहीं भी होते हैं, वे स्वयं ही यह पूजन करते हैं।
 
श्री चित्रापुर मठ, बेंगलूरु में यह उत्सव बड़े उत्साह से मनाया जाता है ।आयु के अनुसार निर्धारित विभिन्न समूहों के लिए – आदि शंकराचार्यजी की जीवनी और संदेशों में से किसी विशेष पहलू पर लेखन-स्पर्धा ; आचार्य द्वारा रचित स्तोत्रों का पाठ ; इन महान आचार्य की जीवनी के विभिन्न पहलुओं पर आधारित रंगबिरंगी चित्रकारी-स्पर्धा, इत्यादि कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। इन स्पर्धाओं के विजेताओं के लिए पुरस्कार-वितरण का समारोह शंकर-जयंती को होता है। शंकर-जयंती के ही शुभ दिन पर सायंकालीन दीपनमस्कार के पश्चात् लगभग पंद्रह मिनट तक प्रस्थान-त्रय से कुछ चुने हुए अंशों का भाष्य पठन किया जाता है। यदि यह भाष्य पठन शंकर-जयंती के दिवस पर पूज्य स्वामीजी की पावन उपस्थिति में हो, तो भाष्यकार आदि शंकराचार्य जी एवं उनकी रचनाओं के विषय में पूज्य स्वामीजी के लघु उपाख्यान का लाभ भी साधकों को प्राप्त होता है। पूज्य स्वामीजी श्रीशंकराचार्य-पूजन करते हैं, जिसमें साधक बड़े ही उत्साह से भाग लेते हैं।

श्री चित्रापुर मठ, बेंगलूरु में शंकर-जयंती के लगभग छह महीने पूर्व से ही साधकों द्वारा श्रीशंकराचार्य-अष्टोत्तर-शतनामावलि का साप्ताहिक पाठ किया जाता है, जिसका समापन शंकर-जयंती को ही होता है।

जिस अद्वैत परंपरा के सिद्धांत का प्रशिक्षण और उसके संरक्षण का मार्गदर्शन हमें हमारी पावन गुरुपरंपरा से प्राप्त होता है, उस सिद्धांत के प्रतिपादन हेतु हम सभी चिरकाल तक आदि शंकराचार्यजी के ऋणी रहेंगे।


वास्तव में इस अद्वितीय परंपरा में जन्म लेने मात्र से हम धन्य हैं, कृतकृत्य हैं।
 

(आंग्ल संकलन  –  श्रीमती कुशल तलगेरी बैलूर, श्री हल्दीपुर नागेश भट माम)
( हिंदी संस्करण - टीम अनुवाद) 

 

'युगादि' , जिसका अर्थ है - 'एक नए युग की शुरुआत',
'युगादि' - गत वर्ष का सिंहावलोकन करने और नए वर्ष में शक्ति वर्धन के नूतन अवसरों का स्वागत करने का शुभ समय। 

हिंदुओं के लिए यह शुभ दिवस एक नए पंचांग वर्ष के प्रारंभ का प्रतीक है।
यह चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को पड़ता है और कई कारणों से एक विशेष और महत्वपूर्ण त्यौहार है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन :

  • ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की थी ।
  • भगवान श्रीरामचंद्रजी का राज्याभिषेक हुआ था ।
  • चैत्र मास के पहले दिन (पड़वा), सूर्य वसंत प्रतिच्छेद (भूमध्य रेखा और मेरिडियन के कटाव बिंदु) पर स्थिति ग्रहण करता है और नए पत्तों एवं चारों ओर खिलते हुए रंग बिरंगे पुष्पों के साथ वसंत ऋतु का आगमन होता है ।
  • कृषि - क्षेत्रों  में इस दिन खेतों की जुताई की जाती है, जो रबी की समाप्ति का और नई फसलों की बुवाई की शुरुआत का प्रतीक है।

 चैत्र शुक्ल प्रतिपदा हमारे देश में अलग-अलग तरीकों से मनाई जाती है और विभिन्न नामों से जानी जाती है।

 युगादि या संवत्सरादि: कर्नाटक,आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के दक्षिणी राज्य में लोग अपने घरों के सामने रंगोली बनाकर नए वर्ष का स्वागत करते हैं और मुख्य द्वार को तोरण (आम के पत्तों की माला) से सजाते हैं। लोग नए कपड़े पहनते हैं और ‘होलीगे ‘(पूरनपोली) के साथ मेजवानी करते हैं। पचड़ी - एक विशेष प्रकार का व्यंजन, जो इमली (खट्टा), नीम के फूल (कड़वा), गुड़ (मीठा), नमक (नमकीन ), हरी मिर्च (तीखा) और कच्चा आम (कसैला), इन सभी सामग्रियों को मिलाकर बनाया जाता है। यह आगामी वर्ष में हमारे समक्ष आने वाले विभिन्न आनंददायक एवं जटिल अनुभवों की स्वीकृति का एक प्रतीकात्मक अनुस्मारक है।

गुड़ी  पाड़वा - महाराष्ट्र में, हिंदू नव वर्ष 'गुड़ी पाड़वा' के रूप में मनाया जाता है। दिन की शुरुआत तेल मालिश एवं अभ्यंग स्नान के साथ होती है। घर के द्वार को तोरण (आम के पत्तों और लाल फूलों की माला) से सजाया जाता है। ‘गुड़ी’ को निम्नलिखित तरीके से स्थापित किया जाता है :
एक चमकीले हरे या पीले रंग का जरी वस्त्र एक लंबे बाँस की नोक से बाँधा जाता है, जिसके ऊपर गाठी (मिश्री की माला), नीम के पत्ते, आम और नीम के पत्तों की एक-एक टहनी और लाल फूलों की माला इत्यादि बाँधे जाते हैं। इसके बाद चांदी या तांबे के बर्तन को लंबे बाँस के ऊपर उल्टी स्थिति में रखकर गुड़ी फहराई जाती है। इसके सामने भूमि पर रंगोली बनाई जाती है। इस गुड़ी की पूजा सूर्योदय के समय की जाती है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि सूर्य किरणों की अग्नियुक्त रचनात्मक शक्ति उस समय अपनी चरम सीमा पर होती है। भगवान ब्रह्मा और विष्णु से अपनी साधना को तीव्र करने और इस ऊर्जा का उचित विनियोग करने के लिए आशीर्वाद माँगा  जाता है। यह नूतन परिधान धारण करने एवं पारिवारिक समारोहों का उत्सव है। मीठे और कड़वे दोनों तरह के अनुभवों को समभाव से स्वीकार करने की याद दिलाने के लिए गुड़ और नीम के पत्तों के मिश्रण का सेवन किया जाता है। दोपहर के शानदार भोजन में श्रीखंड और पूरी एवं पूरनपोली जैसे इस उत्सव के विशेष व्यंजन शामिल होते हैं। पंचांग का पठन प्रायः शाम को किया जाता है।

चेटी चंड  - सिंधी समुदाय द्वारा मनाया जाने वाला यह त्यौहार वसंत और नई फसल के आगमन का प्रतीक है। यह उडेरोलालजी के जन्म का भी प्रतीक है, जिसे संत झूलेलाल के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन, सिंधी समाज के कई लोग बहराणा साहिब (झूलेलाल के प्रतिनिधिस्वरूप) को निकट की नदी या झील में ले जाते हैं। बहराणा साहिब में एक तेल का दीपक, मिश्री, इलायची और फल होते हैं। इनके साथ एक कलश और एक नारियल रखा जाता है, जिसे कपड़े, फूल और पत्तियों से ढाँका जाता है। सिंधी समुदाय संत झूलेलाल और अन्य हिंदू देवताओं की झांकियों के साथ मेलों, दावतों, जुलूसों के साथ यह त्यौहार मनाता है। व्यंजनों में तहिरी (मीठे चावल) और साई भाजी (किंचित मात्रा में चना दाल एवं पालक की भाजी) सम्मिलित होती हैं।

 
श्री चित्रापुर मठ, शिराली में युगादि उत्सव
प्रातःकाल की सेवा के नियमित दैनिक अनुष्ठानों के पश्चात् युगादि के उपलक्ष्य में भगवान भवानीशंकर महादेव को एक विशेष सेवा - रुद्राभिषेक सेवा - नए पंचांग के साथ अर्पण की जाती है। यह बैग्गोन पंचांग हर वर्ष गोकर्ण से प्राप्त किया जाता है - एक परंपरा जिसका पालन परम पूज्य श्रीमद् आनंदाश्रम स्वामीजी की कालावधि से निरंतर किया जा रहा है।
शाम को, मठ में सभी साधकों और स्थानीय निवासियों की उपस्थिति में श्री उल्मन दिनेश भट माम द्वारा पंचांग वाचन कन्नड़ भाषा में किया जाता है। इस पंचांग वाचन में लगभग एक घंटे का समय लगता है क्योंकि इसमें सभी ऋतुओं के पूर्वानुमान से लेकर आगामी वर्ष में प्रत्येक राशि के लिए अपेक्षित विभिन्न विषयों पर जनजीवन से संबंधित सामान्य वार्षिक भविष्यवाणियाँ सम्मिलित होती हैं।
पंचांग वाचन के पश्चात् श्री चित्रापुर मठ दिनदर्शिका का, वर्तमान मठाधिपति, परम पूज्य श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी के दिव्य हस्तों द्वारा आशीर्वाद सहित विमोचन किया जाता है। दिनदर्शिका का प्रथम अर्पण भगवान भवानीशंकर महादेव और गुरुपरंपरा को किया जाता है। अर्पण करने के पश्चात्, उसी शाम इस दिनदर्शिका की प्रतियाँ श्री चित्रापुर मठ की अन्य सभी शाखाओं और स्थानीय सभाओं को वंतिगा दाताओं में वितरण के लिए भेजी जाती हैं।
अष्टावधान पूजा के पश्चात् ताजे मौसमी फलों से बना पानक पनवार का प्रसाद भोजनशाला में एकत्रित सभी साधकों में वितरित किया जाता है।
(स्रोत: अंतर्जाल - संसाधन, उत्सव पुस्तक और श्री चित्रापुर मठ, शिराली के श्री हल्दीपुर नागेश भट माम के विशेष सहयोग द्वारा )

संकलन  - नंदिता माधव पाच्ची 
विशेष सहकार्य - उदया माविनकुर्वे पाच्ची एवं केशव सोराब माम 

  ”हमें उत्सव शब्द के अर्थ और उत्सव मनाने के उद्देश्यों को भलीभाँति, बुद्धिमत्तापूर्वक समझकर उसमें भाग लेना चाहिए और इस समझदारी को केवल अपने परिवार, समाज या देश तक सीमित न रखते हुए, पूरे विश्व के साथ साझा करना चाहिए।”
-परम पूज्य श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी, श्री चित्रापुर मठ, शिराली के एकादश मठाधिपति  

 ”त्यौहार” के लिए प्रयोग किए जाने वाले  संस्कृत शब्द “उत्सव” की उत्पत्ति “उत्” शब्द से होती है जिसका अर्थ होता है - उत्थान। हमारे प्राचीन ऋषियों ने प्रत्येक उत्सव को मनाने का परंपरागत, उचित विधि विधान हमें दिया है, जिससे हमारा उत्थान हो और हम प्रकृति के माध्यम से दिव्यता के निकट आयें। हमारे त्यौहार उल्लेखनीय हैं, क्योंकि इन त्यौहारों में गृहस्थों द्वारा की जाने वाली सहज, सरल पूजा अथवा विस्तृत, पारंपरिक वैदिक पूजा तथा उत्सव से संबंधित अन्य मनोरंजक कार्यक्रम हमारे भीतर के साधक एवं  शिशु, इन दोनों को आकर्षित करते हैं। प्रत्येक त्यौहार ईश्वर के साथ और अधिक निकटता से जुड़ने का एक विशेष अवसर है।
 
 हमारा प्रत्येक प्रमुख उत्सव ऋतुओं के सुंदर एवं क्रमशः परिवर्तन से संबंधित है। हमारी समृद्ध संस्कृति इस गहन  विश्वास पर आधारित है कि प्रकृति और बदलती हुई ऋतुएँ, ईश्वर की ही अभिव्यक्तियाँ हैं। यही विश्वास हमें कला, नृत्य और संगीत के माध्यम से अपनी भक्ति व्यक्त करने का अवसर भी देता है क्योंकि कला को दिव्यता की ही अभिव्यक्ति माना जाता है, जो ईश्वर के साथ हमारे संबंधों को और सुदृढ़ करती है । इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है - "होली"। 
 
होली एक अत्यंत लोकप्रिय उत्सव है, जो मौज और मस्ती के साथ मनाया जाता है, परंतु इसमें निहित एक गूढ़ अर्थ  भी है। हिंदू पंचांग के अंतिम मास अर्थात् फाल्गुन की पूर्णिमा को यह त्यौहार मनाया जाता है, जो अधिकतर मार्च के मध्य में पड़ता है। वैदिक काल से यह त्यौहार मनाया जा रहा है, जिसका संकेत हमें अथर्ववेद के 'परिशिष्ट' में  मिलता है : "अब, होलाका पर्व, फाल्गुन महीने की पूर्णिमा की रात को है।"  

'होली' शब्द संस्कृत  “होलाका” से व्युत्पन्न  है, जो संस्कृत मूल “हू” से  प्राप्त होता है और जिसका अर्थ है “बलिदान अथवा न्यौछावर करना”।  इसलिए सार्वभौमिक मान्यता यह है कि होली हमारे लिए अपनी नकारात्मकताओं को अग्नि में न्यौछावर कर स्वयं के शुद्धीकरण का समय है। वैदिक काल में, उस दिन “नवात्रैष्टि  यज्ञ” किया जाता था। पुराणों और इतिहास में भी होली के बारे में अनेक कथाएँ  हैं । भारत के विभिन्न क्षेत्रों में उस क्षेत्र में प्रचलित कथाओं के आधार पर प्रथाएँ भी भिन्न भिन्न होती हैं।

होली से जुड़ी प्रमुख पौराणिक कथा, भगवान विष्णु के बाल भक्त, प्रह्लाद की है। प्रह्लाद के पिता, असुरों के राजा हिरण्यकश्यप ने, भगवान विष्णु के प्रति अपने पुत्र की भक्ति से क्रोधित होकर, अपनी राक्षसी बहन,  होलिका को प्रह्लाद की हत्या का आदेश दिया। होलिका को एक वरदान प्राप्त था, जिसके कारण अग्नि कभी भी उसे दहन नहीं कर सकती थी । अतः लकड़ी की एक विशाल चिता बनाई गई, और होलिका नन्हें भक्त प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर उस चिता पर बैठ गई। भगवान विष्णु की कृपा से भक्त प्रह्लाद पूरी तरह से बच गए, परंतु दुष्ट होलिका जलकर राख हो गई। यह पौराणिक कथा,  “होलिका दहन” का आधार है, जो हर प्रांत में  होली के उत्सव का एक सामान्य अंग है, जो बुराई के विनाश का द्योतक है, और जो हर बार बुराई पर अच्छाई की आत्यंतिक विजय की पुनरावृत्ति करता है।  

भारत के ब्रज प्रदेश में, जहाँ श्री कृष्ण और राधाजी पले बढ़े, यह त्यौहार उनके परस्पर दिव्य प्रेम के प्रतीक स्वरूप मनाया जाता है और यह पूर्णिमा के पाँचवे  दिन, रंग पंचमी तक चलता रहता है। एक लोकप्रिय दंतकथा के अनुसार, श्री कृष्णजी अपने कृष्ण वर्ण के कारण उदास थे और वे हमेशा यह सोचकर हताश हो जाते थे कि वे गौरवर्णीया राधाजी के प्रेम को जीतने में असफल रहेंगे। यशोदा मैय्या ने सुझाव दिया कि वे राधाजी  के पास जाएँ और उनसे अपनी पसंद के किसी भी रंग से उनका चेहरा रंगने के लिए कहें। राधा ने प्रेम से कृष्णजी के चेहरे को रंग बिरंगे रंगों से रंग दिया और तब से यह दिन, रंगों की बौछार में 'होली' के नाम से मनाया जाने लगा ।


'वाल्मीकि रामायण' की एक अन्य कथा के अनुसार, इस तिथि और नक्षत्र पर देवी सीता और भगवान राम विवाह के पवित्र बंधन में बंधे थे। इसीलिए, यह समय सगाई और विवाह के लिए योग्य और शुभ माना जाता है। दिव्य प्रेम का प्रतीक यह समय वह सुअवसर भी है, जब सभी मंदिरों में देवी पार्वती और भगवान परमेश्वर, मुरुगन और देवयानै, तथा कोदै आण्डाल और रंगमन्नार जैसी दिव्य जोड़ियों के विवाह का उत्सव मनाया जाता है। ब्रह्मानंद पुराण में मुद्रित है कि इस “पंगुनी उथिरम” पर सभी स्थानों का पवित्र जल तिरुपति तिरुमाला के सात पवित्र सरोवरों में एकत्रित हो जाता है।

होली को, “योशांग जाजिरी”, “धुलैण्डि”, “फगुवा”, “शिग्मो”, “उक्कुळी ” और “कामन हब्बा” जैसे कई नामों से भी जाना जाता है। आम तौर पर यह त्यौहार दो दिन तक मनाया जाता है। होली  से पहले की रात्रि में, फाल्गुन पूर्णिमा की शाम को होलिका दहन से इस त्यौहार की शुरुआत होती है। लोग एक सार्वजनिक स्थान पर एकत्रित  होते हैं, जहाँ लकड़ियों का ढेर तैयार किया गया है। एक लघु पूजा के पश्चात् उपस्थित जनसमुदाय प्रार्थना करता है  कि राक्षसी  होलिका की तरह उनके भीतर की सभी बुराइयाँ भी नष्ट हो जाएँ , तत्पश्चात् लकड़ी के ढेर में अग्नि प्रज्ज्वलित की जाती है।

हमारी संस्कृति की  तेजोमय व्यापक सुन्दरता को प्रतिबिंबित करने वाला यह होली का पर्व इस समस्त उपमहाद्वीप में मनाया जाता है। आश्चर्यजनक सत्य यह है कि किस तरह देश के प्रत्येक क्षेत्र में होली भिन्न भिन्न रूप से मनायी जाती है।
 
उत्तर भारत में होली, बसंत की पराकाष्ठा का प्रतीक है और शुष्क, ठंडी शिशिर ऋतु के बाद स्फूर्तिपूर्ण, स्नेहिल बसंत ऋतु के आगमन का स्वागत करने वाले इस त्यौहार को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यहाँ होली का त्यौहार बसंत की उत्कृष्ट फसल के लिए देवताओं से प्रार्थना करने और परिवार तथा मित्र मंडली के साथ खुशी के कुछ पल साझा करने का समय है। इस अवसर पर हर प्रांत में  विशिष्ट मनभावन लोकगीत और भक्तिपूर्ण  भजन  प्रहरानुसार  गाए जाते हैं क्योंकि अधिकतर वे हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत पर आधारित होते हैं।

पंजाब और हरियाणा में होली का उत्सव भक्त प्रह्लाद और होलिका की कथा पर आधारित है, जो प्राचीन सिक्ख समाज  में लोकप्रिय था। गुरु ग्रंथ साहिब में इस कथा का वर्णन करने वाले छंद भी हैं। सिक्खों में उनके अंतिम दशम गुरु, श्रीयुत् गुरु गोबिंद सिंहजी द्वारा आरंभ किया गया “होला मोहल्ला” नामक एक अन्य त्यौहार भी  है। 'होला मोहल्ला' एक सांस्कृतिक कार्यक्रम है, जिसमें सिक्ख समाज के सदस्य कृत्रिम युद्धों के माध्यम से युद्धाभ्यास की विभिन्न युक्तियों  का प्रदर्शन करते हैं।

 भारत के पूर्वी क्षेत्र में होली के उत्सव का रुझान शास्त्रीय कलाओं के प्रदर्शन की ओर अधिक है। इन राज्यों में होली को “बसंत उत्सव”, "डोल पूर्णिमा" या "डोल जत्रा” के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि मंदिरों के गर्भ गृहों से देवताओं की मूर्तियों को भव्य शोभा यात्रा करते हुए आसपास के क्षेत्रों में ले जाया जाता है। ओडिसा में “डोला होली” उत्सव फाल्गुन दशमी से शुरू होकर पाँच से सात दिनों तक चलता है, जब भगवान जगन्नाथ की मूर्तियों को सुंदर, अलंकृत पालकियों में बिठाकर, पूजा, भोग और रंगीन अबीर अर्पित कर यात्रा करवाई जाती है।  
 
मणिपुर में, होली को “योशांग या याओसांग” कहा जाता है, जो इस घाटी का सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार है। बसंत ऋतु का यह पाँच दिवसीय त्यौहार, विशेष रूप से मैतेई लोगों द्वारा मनाया जाता है, जिसका मुख्य आकर्षण, होली त्यौहार  का एक पारंपरिक लोक नृत्य , “थबल चोंगबा” (चांदनी रात में नृत्य) है।  


महाराष्ट्र में, होली को “शिग्मा” या “रंग पंचमी” के नाम से भी जाना जाता है। होलिका दहन के बाद गायन, नृत्य और एक दूसरे पर रंग डालना, ये इस  द्वि-दिवसीय उत्सव की जनसामान्य प्रणालियाँ हैं। परंतु सबका मनपसंद विशेष व्यंजन 'पूरनपोली', इस त्योहार की मधुरता को बढाता है। होली के साथ इस व्यंजन की घनिष्ठता इतनी है कि इस दिन का एक सर्वप्रिय लोकगीत है “ होळी रे होळी, पूरणाची पोळी”!  पूजा के बाद परिवार के देवताओं को नैवेद्य के रूप में पूरन पोली और अन्य स्वादिष्ट व्यंजन बड़े प्रेम और श्रद्धा से अर्पित किए जाते हैं।
 
आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में होली को “जाजिरि, कामुनि पुन्नमी या काम पूर्णिमा” कहा जाता है। यह कामदेव और रतिदेवी की कथा से संबंधित है, इसलिए इसे “कामविलास, कामुनि पण्डुग और कामदहनम्” भी कहा जाता है। भक्त, गाँव के रति-मन्मथ मंदिर में जाकर देवताओं को पूजा एवं रेशमी वस्त्र अर्पण करते हैं। 

कर्नाटक में होली को “काम दहन” के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ पर सिरसी गाँव का उत्सव विशेष रूप से  उल्लेखनीय है। होली पूर्णिमा से पहले पाँच दिनों तक रात्रि के समय "बेदार वेशा" (आखेट - नृत्य) नामक एक अनूठा लोक नृत्य प्रस्तुत किया जाता है, जो भारत के विभिन्न प्रांतों से बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकर्षित करता है। किंतु  यह विशेष कार्यक्रम केवल हर दूसरे वर्ष में ही आयोजित किया जाता है।
 
श्री चित्रापुर मठ में फाल्गुन पूर्णिमा के दिन, पारंपरिक होलिका दहन के साथ यह उत्सव मनाया जाता है। प्रायः मठ में  सायंकाल की “अष्टावधान पूजा” के पश्चात् यह उत्सव मनाते हैं। लोग “रथागाद्दे” ( जिस मैदान में रथोत्सव मनाया जाता है) के सार्वजनिक स्थान पर एकत्रित होते हैं, जहाँ सूखी लकड़ियों का ढेर स्थापित किया जाता है। बीच में एक बांस खड़ा कर सभी सूखी लकड़ियों और नारियल के वृक्ष की सूखी शाखाओं को उससे बाँधा जाता है। यह इसे कुछ कुछ शंकु का आकार देता है।

अर्चक होलिका की इस चिता को हल्दी और कुमकुम से लेपित नारियल अर्पण कर, आरती करते हैं। आरती करने के बाद होलिका की चिता में अग्नि प्रज्ज्वलित की जाती है और साधक अपने भीतर की बुराइयों और नकारात्मक गुणों के विनाश के लिए प्रार्थना करते हैं। होलिका दहन की यह जनमान्य प्रथा भारत के भिन्न भिन्न प्रदेशों में मनाए जाने वाले इस त्यौहार के विभिन्न रीति रिवाजों को एक सूत्र से बाँधती है।

 परम पूज्य श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी के एक अन्य दिव्य उद्गार के साथ हम इस लेख का समापन करते हैं :

"आइये, हम गर्व के साथ इसमें सहभागी हों - इस स्वाभिमान के साथ कि हमें एक ऐसी संस्कृति में जन्म मिला है, जो  हमें सामूहिक रूप से ईश्वर की दिव्य मोहक अभिव्यक्तियों के प्रति अपने प्रेम को प्रदर्शित और साझा करने के निराले और कलात्मक अवसर प्रदान करती है।"
 

गुरुवार हुआ गुरुमय....
 

 ( श्री कैलाश सारस्वत माम एवं डॉ राम सारस्वत माम द्वारा )
लगातार ११ सत्संग में मिला स्नेही स्वजनों का सान्निध्य ...

परम पूज्य श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामी जी और गौरवशाली श्री चित्रापुर गुरु परंपरा के उच्च मापदंडों के अनुसार श्री चित्रापुर मठ के साधकों के मार्गदर्शन और संचालन से बीजेएस सारस्वत साधकों के साथ ५ अगस्त २०२१ से सत्संग का सिलसिला प्रारंभ हुआ जो लगातार ९ जनवरी २०२२ तक चला।  स्नेहमय परिचय के साथ-साथ चर्चा एवं भक्तिमय सत्संग संपन्न हुए। १५-२० साधकों का समागम बढ़ते बढ़ते ५०-५५ तक पहुँचा। 

 

 

इन एकादश सत्संगो में मुख्य बात यह रही कि हमारी उज्ज्वल श्री चित्रापुर गुरु परंपरा के एकादश गुरुओं का जीवन चरित्र क्रमशः  बहुत ही जीवंत तरीके से दर्शाया गया। प्रत्येक गुरु परिचय में उनके जीवन की चमत्कारिक घटनाओं और उनके समाज कल्याण के कार्यों को बखूबी दिखाया गया। गुरुदेवों के जीवन से संबंधित दिव्य घटनाओं को चित्रापुर समाज के भ्राता भगिनियों ने चित्रों और पॉवर पॉइंट प्रस्तुतियों से इतना मार्मिक बनाया कि प्रथम मठाधिपति परम पूज्य श्रीमत् परिज्ञानाश्रम (प्रथम) स्वामीजी से ले कर वर्तमान मठाधिपति परम पूज्य श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी  तक के जीवन चरित्र की संपूर्ण यात्रा हमारे मन मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ गई, जिन घटनाओं से बीजेएस अनभिज्ञ था। सत्संगों के माध्यम से हमारी उज्ज्वल परंपरा के महान गुरुदेवों के दिव्य चरित्र को जान कर हम निहाल हो गए और मस्तक गर्व से ऊँचा हो गया कि हम इतनी पवित्र और महान परंपरा के अनुयायी हैं।

 हर सत्संग में वही ऊर्जा और गरिमामय वातावरण रहा। भजनों की मधुर सरिता बही, स्तोत्र पाठ हुए। सभा प्रारंभ प्रार्थना एवं समाप्ति प्रार्थना का प्रशिक्षण लेकर हर आयु-वर्ग के सदस्यों ने, उन्हें पूरी श्रद्धा भक्ति से प्रस्तुत किया। साधकों ने अपने विचार व्यक्त किए, लोक गीत गाए।  संस्कृति विषयक जानकारी का आदान-प्रदान हुआ। पूज्य गुरुदेव से मिले स्नेहिल सान्निध्य को अभिव्यक्त किया। परस्पर संवाद के माध्यम से साधकों ने गुरुवरों का स्मरण किया। बच्चों, युवक, युवतियों ने कर्णप्रिय भजनों के माध्यम से उपासना का वातावरण बनाया। बीजेएस साधकों ने सपरिवार इस आनंददायक और प्रेरणादायक सत्संग का लाभ लिया। 

 

 

सभी ११ सत्संग अत्यंत ही उच्चस्तरीय, गरिमामय तथा भक्तिमय संपन्न हुए। इन सत्संग के दौरान यदि यह कहा जाए कि उत्तर और दक्षिण भारत के साधकों का आध्यात्मिक व पारिवारिक मिलन हुआ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। बीजेएस साधकों ने परंपरागत निज भाषा और अपनी शैली में भजनों को प्रस्तुत किया। साथ ही परंपरागत तीज त्यौहारों का विवरण चित्रों के साथ प्रस्तुत कर  सहभागी हुए। दक्षिण भारत के साधकों ने अपनी मधुर वाणी तथा आदर पूर्वक प्रत्येक वाक्य के साथ गुरु परंपरा के उच्च आदर्शों को प्रस्तुत कर मन मोह लिया।

 पूज्य श्री की बीकानेर और जोधपुर यात्रा तथा बीजेएस साधकों की शिराली यात्रा से बहुत से परिवारों में पवित्र परंपरा तथा पूज्य श्री का परिचय पहुँचा था। और इन ११ सत्संग श्रृंखला से यह पावन कार्य और अधिक विस्तारित हुआ। सत्संग के माध्यम से गुरु परम्परा जोधपुर, बीकानेर, दिल्ली सहित देश के अनेक घरों तक पहुँची। 

 

 

इस तरह परम पूज्य श्रीमत् सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी के आशीर्वाद से प्रारंभ हुई एकादश सत्संग श्रृंखला - प्रथम आवर्तन का भव्य समापन ९ जनवरी २०२२ को ११ वें सत्संग के द्वारा हुआ। 

आभार
बीजेएस के तरुण, तरुणियों तथा बालकों द्वारा स्पष्ट रूप से स्तोत्र पठन, भजन, प्रार्थना करवाने में  सत्संग कोर टीम की खूब भागीदारी है। यह उन साधकों की कठिन तथा लगातार मेहनत का ही परिणाम है कि हमारी युवा पीढ़ी ने गुरु परंपरा को अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बना लिया। यह हम सभी पर पूज्य गुरुदेव के आशीर्वाद को दर्शाता है। सुषुप्त समाज को आध्यात्मिक रूप से जगाने में आप सभी के माध्यम से हम पर जो गुरु अनुकंपा हुई इसके लिए हम आपके ऋणी हैं। 

वेबसाइट से संबंधित जानकारी तथा कार्यक्रम के सफल संचालन में वेबसाईट टीम का सहयोग हमारे लिए अविस्मरणीय है। 
माननीय सचिवालय का सतत संपर्क हेतु कोटिशः आभार। 

स्टेंडिंग कमिटी प्रेसिडेंट प्रवीण पी कडले माम के उचित मार्गदर्शन हेतु बहुत बहुत धन्यवाद।

टीम सायुज्यं व मेलनम् के सभी साधकों का बहुत बहुत आभार। 

सभी सत्संगों तथा अन्य सायुज्यं गतिविधियों को संपादित करने में बीजेएस साधक डॉ. राम सारस्वत ने हमारे और श्री चित्रापुर मठ परंपरा के मध्य एक सेतु समान सामंजस्य स्थापित कर महत्त्वपूर्ण  भूमिका निभाई।

यह सत्संग निरंतर अनवरत जारी रहे,  परम पूज्य स्वामी जी के आशीर्वाद से हम और नये सोपान गढ़ें, ऐसी आशा है।

व्यक्तिगत कार्य में भी गलती होना स्वाभाविक है, फिर यह तो समाज का ईश्वरीय कार्य था, तो इधर से कोई उदासीनता या गलती हुई हो, तो क्षमा करें।
सत्संग से सभी साधकों को अमूल्य लाभ मिला है। हमारे कुछ साधकों ने सत्संग के बारे में अपने विचार व्यक्त किए हैं, जो निम्नलिखित हैं..
"मैं विज्ञान का छात्र होने के बावजूद भी श्री परिज्ञानाश्रम त्रयोदशी का सहजता से पाठ कर पाया, ये पूज्य स्वामी जी व पवित्र गुरु परंपरा का ही आशीर्वाद है।" 
- डॉ. दिवाकर सारस्वत (खाजूवाला)

"इन पावन सत्संगों में भागीदारी के पश्चात् मेरा रूझान अध्यात्म व पवित्र परंपरा के प्रति और मजबूत हुआ। परस्पर वार्तालाप, समन्वय और संबंधों को मजबूती मिली।" 
- हिमांशी सारस्वत (फतेहाबाद हरियाणा)

"इन पावन सत्संगों के माध्यम से पवित्र परंपरा के बारे में नजदीक से जानने का अवसर मिला। परस्पर संवाद और मेल मिलाप से संबधों में प्रगाढ़ता बढ़ी, पूजनीय परंपरा के प्रचार प्रसार में “सत्संग” मील का पत्थर साबित हुआ।"
  - गिरीश सारस्वत (गाजियाबाद)

"हालांकि मैं पूजनीय परंपरा से विगत कई वर्षों से जुड़ी हूँ, पूज्य स्वामी जी का दीक्षा आशीर्वाद मिला है। शिराली यात्रा का भी सौभाग्य प्राप्त है, परंतु सही मायनों में सत्संगों ने परिचय करवाया और समर्पण भाव में वृद्धि की।"
-प्रेम पाच्ची सारस्वत (भीलवाड़ा )

"मैंने एक-दो सत्संगों में ही मम्मी के साथ भाग लिया तथा "दारिद्रय दुःख दहन" स्तोत्र सीखा तथा गाया। सत्संग में भाग लेने के बाद मुझ में संस्कृत भाषा सीखने की ललक हुई। मैंने तीन चार श्लोकों को कंठस्थ भी किया है। समय-समय पर मैं इन्हें गाता भी हूँ। इसके लिए मैं सभी को धन्यवाद देता हूँ।"
- रजत सारस्वत (जोधपुर)

पिछले साल में गुरु कृपा से जितने सत्संगों में मैंने हिस्सा लिया उनमें मुझे हर बार गुरुदेव जी को समझने व उनका आशीर्वाद पाने का बहुत मौका मिला है, इसलिए सत्संग चाहे ओनलाइन हो या ओपन हो, सत्संग का महत्व गुरु आशीर्वाद जैसा ही होता है।"
- प्रेम प्रकाश सारस्वत (खारडा) 

"बहुत ही आध्यात्मिक और सारगर्भित सत्संग रहे। बहुत कुछ जानने और सीखने को मिला। सभी के प्रति अपनत्व का अहसास हुआ। गुरुदेव का आशीर्वाद और स्नेह हम सब पर यूँ ही बना रहे।"
-हुकुम चंद सारस्वत (बीकानेर )

"मैं कैसा महसूस कर रहा हूँ, वो शब्दों में पिरोना असंभव है। केवल तीन चार सत्संग से आत्म विश्वास व शान्ति का अनुभव और आभास हुआ। मैं जानता हूँ, कीमती समय निकाला जा रहा है, पर यह भी परम सौभाग्य है जो मुझे सत्संग में आप सभी का सान्निध्य, आशीर्वाद व आनंद प्राप्त हुआ।"
-हजारी प्रसाद सारस्वत (खाजूवाला)

"सत्संग के दौरान शिराली के साधकों से मुलाकात मेरे लिए अत्यंत ही आनंददायक और उपयोगी रही, पूज्य स्वामी जी के जोधपुर प्रवास के दौरान आप सभी से मुलाकात हुई थी, उसके बाद सत्संग में मुलाकात अत्यंत प्रसन्नतादायक रही। बीकानेर तथा अन्य स्थानों के साधकों से विचार विमर्श और सत्संग का आदान-प्रदान मेरे लिए सौभाग्य शाली रहा। गुरुदेव का आशीर्वाद हम सभी पर बना रहे। 
-मनीषा सारस्वत (जोधपुर)

"सत्संग की श्रृंखला से गुरु परंपरा को समीप से जानने का अवसर मिला, साथ ही चित्रापुर सारस्वत समाज व उतर भारत सारस्वत समाज को आपस में जानने व समझने का अत्युत्तम मंच मिला, मठ परंपरा की रीति नीति को बारीकी से जाना व समझा। छोटे छोटे बच्चो में पठन पाठन का अभ्यास देखते ही बन रहा है।"
-पवन सारस्वत (खाजूवाला)

"सत्संग के माध्यम से सबसे मिलने का मौका मिला एवं बहुत कुछ सीखने को मिला जिसके बारे में अब तक अनभिज्ञ था।"
-श्री किशन सारस्वत (चूरू)

"सत्संग के दौरान आदरणीया पाच्चियों तथा अन्य ज्येष्ठ साधकों का मार्गदर्शन और आशीर्वाद मुझे मिला। आपके आशीर्वाद से मैं गुरु चरणों में कुछ भजन व स्तोत्र समर्पित कर पाई। मेरे लिए यह गौरवशाली रहा। परम पूज्य गुरुदेव तथा आप सभी का आशीर्वाद ऐसे ही बना रहे। "
-  यु. गरिमा सारस्वत (जोधपुर)

“कोरोना काल में सब लोग परम पूज्य स्वामीजी के दर्शन तो नहीं कर सकते थे, न ही हम सब आपस में मिल सकते थे। तब चित्रापुर साधक भाई बहनों ने ऑनलाइन सत्संग के माध्यम से हम सभी को जोड़ा। शुरुआत में लगा हम क्या करेंगे , क्या बोल पायेंगे, पर मठ के साधकों ने हमें बहुत कुछ सिखाया।  प्रार्थना, स्तोत्र, भजन व्यक्तिगत फोन करके प्रैक्टिस करवाई। हमारे बच्चों को भी सिखाया। बच्चे भी सहभागी होने लगे। सब कुछ बहुत अद्भुत था। कोरोना समाप्त होने के पश्चात् भी मैं चाहती हूँ कि सत्संग के माध्यम से हम जुड़ें रहें। 
- श्रीमती मंजु सारस्वत  (सूरत )


।। ॐ नमः  पार्वती पतये हर हर महादेव।। 

 

लेखक - धर्मप्रचारक श्री वी. राजगोपाल भट माम 
चित्रकला - कु.मिताली यु. राव

 

 रथसप्तमी का त्यौहार दैदीप्यमान सूर्य को समर्पित है, जिसके बिना पृथ्वी पर जीवन असंभव है। सूर्य को वास्तव में जीवन और प्राण शक्ति का स्रोत कहा जा सकता है। वेदों में वर्णित जीवन शैली के अनुयायी, हमारे पूर्वजों ने वेदों और उपनिषदों में इस प्रकाशमान दिव्य ग्रह की महिमा का बखान किया है।  पवित्र गायत्री मंत्र अपने आप में परमात्मा का आवाहन है जिसकी परिकल्पना सूर्य में की जाती है।  "वह परमात्मा जो सूर्य में है, वह परमात्मा मैं ही हूँ!"  उपनिषद् ऐसी घोषणा करते हैं।

हमारी संस्कृति में सूर्यदेवता, “सूर्य नारायण” के रूप में पूजनीय हैं। माघ शुक्ल सप्तमी को मनाई जाने वाली रथसप्तमी, उनके प्रति आभार प्रकट करने का त्यौहार है।

वेदों में सूर्य को आकाश मार्ग में एक सुनहरे रथ में परिभ्रमण करते हुए कल्पित किया गया है।  "हिरण्मयेन सविता रथेन देवो याति भुवनानि पश्यन्,"  यह पुरातन मंत्र ऐसी घोषणा करता है।  कहा जाता है कि इस रथ में १२ पहिए होते हैं, जो ३६०-डिग्री राशि चक्र की, ३० डिग्री प्रति राशि वाली, १२ राशियों के प्रतीक हैं और एक संपूर्ण वर्ष का संकलन करते हैं, जिसे “संवत्सर” कहा जाता है। पंचांग में सूर्य का अपना निवास स्थान "सिंह" राशि है और वह प्रति मास एक राशि से दूसरी राशि तक परिभ्रमण करता है। इस संपूर्ण चक्र को पूरा होने में ३६५ दिन लगते हैं।  रथसप्तमी समारोह प्राणदाता सूर्य से प्राप्त होने वाली दिव्य ऊर्जा और प्रकाश का आवाहन करता  है।

 सात का अंक सूर्यदेव का प्रिय अंक माना जाता है।  सात घोड़ों से जुते हुए रथ के स्वामी होने के कारण उन्हें ‘सप्ताश्व’ भी कहा जाता है। ये घोड़े इंद्रधनुषी रंगावली (विब्ग्योर) के सात रंगों के प्रतीक माने जाते हैं। सप्ताह में सात दिन होते हैं, जिनमें से प्रत्येक दिन का स्वागत सूर्योदय से होता है।  रथसप्तमी मनाने वाले भक्त पारंपरिक तौर पर सात व्यंजनों का भोग चढ़ाते हैं।

सम्पूर्ण भारतवर्ष में रथसप्तमी, क्रमशः तापमान में वृद्धि और वसंत के भावी आगमन का प्रतीक है, जिसे आगामी चैत्र के महीने में युगादि या हिंदू चंद्रमान नव वर्ष दिवस के रूप में मनाया जाता है।

 रथसप्तमी, सूर्य जयंती के नाम से भी जानी जाती है। इस दिन को वैवस्वत् (विवस्वान्  अर्थात् सूर्य) मन्वन्तर का आरंभ भी माना जाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि इसी दिन कश्यप और अदिति के घर सूर्यदेव का जन्म हुआ था।

रथसप्तमी पर पारंपरिक पूजा का शुभारंभ सूर्य की मूर्ति को केसर, पुष्प और ‘अर्क’ नामक पौधे (रूई पान - कोंकणी में) की सात पत्तियों से सजाकर किया जाता है।  भोर की बेला में किसी सरोवर या नदी में स्नान, विशेष रूप से निर्धारित है। इस कृतज्ञतापूर्ण आभार के प्रकटन से अर्जित पुण्य स्थायी अर्थात् अचल माना जाता है और इसलिए इस शुभ दिन को अचला सप्तमी भी कहते हैं।  यह भी कहा जाता है कि यह पुण्य पिछले सात जन्मों के पापों को मिटा देता है तथा मातृपक्ष और पितृपक्ष, दोनों के पूर्वजों की सात पीढ़ियों को आशीर्वाद प्रदान करता है। 

मंत्रोच्चारण के साथ सूर्य को तर्पण दिया जाता है।  रथसप्तमी पर पाठ के लिए आदर्श स्तोत्र हैं - आदित्य हृदय, सूर्याष्टक, सूर्य-सहस्रनाम और सूर्यमंडल स्तोत्र।  मैसूर और मेल्कोटे  जैसे स्थानों में, सूर्यदेवता के प्रतीक सूर्यमंडल के साथ भव्य जुलूस निकाले जाते हैं।  मंगलूरु में श्री वेंकटरमण मंदिर के भगवान वीर वेंकटेश का वार्षिक रथोत्सव भी इसी दिन आयोजित किया जाता है और इसे प्रेम से ‘कोडियाल तेरु’ कहा जाता है।

 रथसप्तमी हम चित्रापुर सारस्वतों के लिए और भी अधिक विशेष महत्व रखती है।  इस शुभ दिन पर ही हमें गोकर्ण के कोटितीर्थ पर अपने प्रथम गुरु परम पूज्य श्रीमत् परिज्ञानाश्रम स्वामी जी (प्रथम) प्राप्त हुए थे। 

जैसा कि श्री चित्रापुर गुरुपरंपरा चरित्र ग्रन्थ (अध्याय ३ और ४ ) में आदरणीया श्रीमती उमाबाई आरूर  पाच्ची द्वारा बहुत ही सुन्दर  रूप में वर्णित किया गया है, हमारे पूज्य पूर्वज श्री महाबलेश्वर मंदिर गोकर्ण के पवित्र परिसर में खान पान का त्याग कर ध्यान में, तब तक हार न मानने का संकल्प ले कर  बैठे थे, जब तक ईश्वर उनकी प्रार्थनाओं का उत्तर नहीं देते।  इस प्रकार सात दिन के अनुष्ठान के पश्चात् उन में से एक वरिष्ठ सज्जन को भगवान श्री भवानीशंकर का दृष्टांत हुआ। 

 

रथसप्तमी १७०८: गुरु-प्राप्ति-दिवस, कोटितीर्थ, गोकर्ण. चित्रकला - कु.मिताली यु. राव
 
 

 तब कृपालु ईश्वर ने घोषणा की  कि उत्तर भारत से एक संन्यासी अगले दिन संध्याकाल में कोटितीर्थ पहुँचेंगे।  साक्षात् ईश्वर के अवतार, वे तपस्वी सहर्ष चित्रापुर सारस्वतों का गुरुपद स्वीकारेंगे।  रथसप्तमी को ही उन पूजनीय संन्यासीजी (परम पूज्य श्रीमत् परिज्ञानाश्रम स्वामीजी - प्रथम) से हमारे पूर्वजों की वह अद्वितीय भेंट हुई थी।  इसीलिए यह गुरु-प्राप्ति-दिवस हमारे लिये अत्यधिक पवित्र है।

कैलेंडर में  हालांकि उत्तरायण, रथसप्तमी से पहले आता है, किन्तु अपने रथ को मोड़कर, सूर्य का दृढ़तापूर्वक उत्तर दिशा की ओर गमन, रथसप्तमी से ही माना जाता है।  वाकई, यह कितना आश्चर्यजनक पवित्र संयोग है कि हमारा गुरु-प्राप्ति-दिवस, रथसप्तमी को ही पड़ता है। वस्तुतः  वह हमारे प्रथम गुरु का आगमन ही था, जिसने हमारे समाज को उत्तरायण की दिशा दर्शाई, जिस दिशा में अपनी विलक्षण गुरु परंपरा के मार्गदर्शन के साथ भगवत्-प्राप्ति हेतु हमारे कदम अग्रसर हो सकते हैं।
 

।। ॐ नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव ।। 

 श्री वी.राजगोपाल भट माम, केशव सोराब माम और आशा अवस्थी पाच्ची के साथ अर्चना कुम्टा  पाच्ची द्वारा संकलित।  वीडियो और तस्वीरें - एससीएम अभिलेखागार

 

मकर संक्रांति, चित्रापुर सारस्वतों के लिए एक महत्वपूर्ण त्यौहार है, जिसे बहुत ही खुशी और उत्साह के साथ मनाया जाता है। यह त्यौहार पूरे भारतवर्ष में अन्य समुदायों द्वारा भी मनाया जाता है, और इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है - संक्रांति, उत्तरायण, लोहड़ी, पोंगल, खिचड़ी, माघी आदि।

 लगभग १७०० वर्ष पहले, मकर संक्रांति और शीतकालीन संक्रांति (उत्तरायण) एक ही दिन, २१ दिसंबर को पड़ी थी। पृथ्वी का अग्रगमन और नक्षत्र राशि के अनुसार कैलेंडर में ७२ वर्षों में लगभग १ दिन का परिवर्तन आ जाता है। इसके कारण, मकर संक्रांति लगातार, लेकिन बहुत धीरे-धीरे शीतकालीन संक्रांति (उत्तरायण) से दूर होती जाती है। मकर संक्रांति और उत्तरायण अलग-अलग त्यौहार होते हुए भी, मकर संक्रांति उत्तरायण का ही पर्याय है।

 मकर संक्रांति फसल की कटाई के मौसम के आरंभ का प्रतीक है। नई फसलों की पूजा और  कटाई कर आनंदपूर्वक उसे दूसरों के साथ साझा किया जाता है। यह समय है, ताजे कटे हुए अनाज को देवताओं को अर्पित कर, भोग चढाने के बाद स्वयं खाने का। ऐसा ही एक भोग है खिचड़ी। यह एक हल्का और आसानी से पचने वाला व्यंजन है जो एकता का प्रतीक है। ताजी कटी हुई फसल के चावल, दाल, मौसमी सब्जियाँ और मसालों सहित सभी सामग्रियों को एक साथ मिलाकर एक ही बर्तन में खिचड़ी को पकाया जाता है। मकर संक्रांति से संबंधित उत्सव-विधियाँ जीवन और पुनरुत्थान की प्रतीक हैं।

 'संक्रांति' या 'संक्रमण' शब्द का अर्थ है 'पारगमन' और यह किसी राशि विशेष में सूर्य की गति से संबंधित है। एक वर्ष में ऐसी १२ संक्रांति होती हैं, जिनमें से प्रत्येक कुल १२ राशियों में से किसी एक के अनुरूप होती है। पर इनमें से दो सबसे महत्वपूर्ण पारगमन, कर्कटा संक्रांति और मकर संक्रांति हैं, जब सूर्य क्रमशः कर्कटक और मकर राशि में प्रवेश करता है। 

मकर संक्रांति ऋतु परिवर्तन का भी संकेत देती है। प्रत्येक नए दिन के साथ, सूर्य आकाश में दक्षिण से उत्तर की ओर गमन करता है। उत्तरायण के साथ, उत्तरी गोलार्ध में दिन लंबे हो जाते हैं। इसलिए यह त्योहार सूर्य देवता को समर्पित है।

उत्तरायण या देवायन को देवताओं के लिए दिन का समय कहा जाता है, और यह समय उपनयन (जनेऊ), विवाह, और देवकार्य जैसे होम/हवन, यज्ञ आदि के लिए सबसे शुभ माना जाता है। इस अनुकूल अवधि के दौरान साधक अतिरिक्त साधना, जैसे जप, ध्यान, स्वाध्याय आदि का अनुष्ठान करते हैं। दूसरी ओर कर्कटक संक्रांति, दक्षिणायन अथवा सूर्य के पित्रायण (दक्षिण की ओर गमन) को इंगित करती है और यह हमारे दिवंगत पूर्वजों का दिन का समय माना जाता है। अतः  इस समय में श्राद्ध, तर्पण, म्हाळ (महालया अमावस्या के लिए कोंकणी शब्द) जैसे कार्य किए जाते हैं।  इस अवधि के दौरान रात्रि का समय दिन की तुलना में लंबा होता है।

 

हम मकर संक्रांति कैसे मनाते हैं ... 

इस त्यौहार में, तिल (कोंकणी में तीळु) और गुड़ के मिश्रण से एक व्यंजन तैयार किया जाता है, जिसे कर्नाटक में  'एलु बेला' और महाराष्ट्र में ‘तिल्गुळ’ कहा जाता है, यह अधिक से अधिक लोगों को वितरित किया जाता है। इस तिल्गुळ को साझा करते हुए, कर्नाटक में कहते हैं ‘इल्लु बेला तिन्दु, वोल्ले माताडु' जो कि मराठी में 'तिल्गुळ घ्या, गोडगोड बोला' का समानार्थी है। इस प्रकार 

 तिल्गुळ लोगों के बीच स्नेहपूर्ण बंधन का प्रतीक है जिस तरह तिल भी गुड़ के साथ एक आदर्श संयोजन बनाते हैं। संस्कृत में, तेल के लिए शब्द 'स्नेह' है। ऐसा कहा जाता है कि तिल के बीज विष्णु और मृत्यु के देवता यम के पसीने की बूंदों से निकले, जिन्होंने उन्हें प्रसादित किया और इसलिए, वे पितृ-कार्य (जैसे श्राद्ध, तर्पण आदि) में अपरिहार्य हो गए। तिल के बीज तेल, कैल्शियम और खनिजों का एक समृद्ध स्रोत हैं, जिसके कारण सर्दियों में इनका उपयोग समुचित है।

 मकर संक्रांति पर, कई लोग गंगा जैसी पवित्र नदियों, या पवित्र झीलों के तट पर पारंपरिक डुबकी लगाने के लिए एकत्र होते हैं। अन्य लोग गंगा का आह्वान करते हुए, इस श्लोक का पाठ करते हुए घर पर ही स्नान करते हैं, मानो पवित्र नदी में ही डुबकी लगा रहे हों।

 गड़्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।  
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु।।

 श्री चित्रापुर मठ - शिराली में, मठ के प्रवेश द्वार और प्रत्येक मंदिर को आम के पत्तों से बने तोरणों से सजाया जाता है। भक्त प्रत्येक मंदिर में तिल्गुळ चढ़ाते हैं और नित्यपूजा के दौरान सभी मंदिरों में पंचामृत रुद्राभिषेक किया जाता है। सभी मंदिरों में नैवेद्य के रूप में खिचड़ी का भोग लगाया जाता है।
पतंग एक हिंदी शब्द है, पतंग उड़ाना सूर्य की उत्तरी यात्रा का प्रतीक है, और यह मकर संक्रांति पर युवाओं का अतिप्रिय खेल है। शिराली में, परम पूज्य सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी केम्ब्रे में रंग-बिरंगी पतंगें उड़ाने में युवाओं का साथ देते हैं।

 मकर संक्रांति आध्यात्मिक साधक को हमेशा सही दिशा में अग्रसर रहने का स्मरण दिलाती है - ठीक उसी तरह जिस तरह एक नाविक के कम्पास की सुई हमेशा उत्तर दिशा को इंगित करती है। इसी तरह, हमारी बुद्धि हमेशा सही और गलत के बीच चुनाव करने में विवेकशील होनी चाहिए, जो हमें हमारे अंतिम लक्ष्य, ब्रह्म की ओर सही रास्ते पर ले जाए।

अपने आशीर्वचन में परम पूज्य सद्योजात शंकराश्रम स्वामीजी ने साधक की, एक चरण से दूसरे चरण में क्रमिक आध्यात्मिक प्रगति की तुलना सूर्य के विभिन्न राशियों में से होने वाले संक्रमण से  की है, अर्थात् जीवन में सभी प्रकार की विभिन्न स्थितियों के माध्यम से सबक सीखते हुए लगातार विकसित होना।

 मकर संक्रांति एक नूतन प्रकाश को जीवन में प्रवेश की अनुमति देते हुए, अतीत को भूलने का एक सुअवसर है। यह हमें विभिन्न तरीकों से (जैसे गायत्री मंत्र) सूर्य देवता से प्रार्थना करने का अवसर  देती है। ज्ञान रूपी प्रकाश द्वारा हमारी बुद्धि का अज्ञान रूपी अंधकार नष्ट हो, ऐसे आशीर्वाद की हम प्रार्थना करते हैं।  
    
 

ॐ श्री गुरुभ्यो नमः
श्री भवानीशंकराय नमः
श्री मात्रे नमः

जय शंकर


परम पूज्य स्वामीजी श्रीमद् सद्योजात शंकराश्रम् जी द्वारा २०२१ का चातुर्मास शक्तिपीठ *मल्लापुर* में संपन्न किया गया, हम पांच लोग गुरुपूर्णिमा पर मल्लापुर गये थे तथा *गुरुपूर्णिमा महोत्सव* में भाग लिया था, गुरुपूर्णिमा महोत्सव का विवरण पहले के आलेख में लिख चुका हूं, जब हम गुरुपूर्णिमा पर मल्लापुर गये थे, तब पूज्य गुरुदेव ने अत्यंत स्नेह से हमें संकल्पित किया था कि आपको *सीमोल्लंघन* पर भी आना होगा, गुरुराज के आदेश को शिरोधार्य करते हुए मैं और पवन लगभग ५० घंटे की रेल यात्रा करते हुए २०.९.२०२१ को प्रातःकाल मल्लापुर पहुंच गए, चूंकि कोविड प्रोटोकॉल की पाबंदियां थी अतः केवलमात्र प्रतिनिधि साधक ही इस अनुष्ठान हेतु पहुंचे थे,चित्रापुर सारस्वत भगिनी, बंधुओं का हमारे लिए आतिथ्य सत्कार अवर्णनीय है, मठ में पदार्पण होते ही समय इतनी तीव्र गति से दौड़ता है कि भान ही नहीं होता कब प्रातः कब अपरान्ह और कब सांय हो जाती है,मठ का दिव्य और अलौकिक वातावरण आत्मिक शांति की पराकाष्ठा होता है,
साधकों द्वारा चल रहे अनवरत स्तोत्रम् पठन और भजन कीर्तन एक दिव्य अनुभूति करवाते हैं, इनसे मानसिक, आत्मिक और कायिक दुर्बलता व नकारात्मक प्रभाव छूमन्तर हो जाते हैं,
२०.९.२०२१ को जैसे ही *पूज्य स्वामीजी* ने मठ में प्रवेश किया सभी साधक उनके दर्शन कर निहाल हो गए, पूजा अर्चना के उपरांत पूज्य श्री ने धर्मसभा को अत्यंत स्नेहिल मुस्कान के संबोधित किया, उनके द्वारा गायन किया गया भजन *ऐसा ही गुरु भावे....साधो* इतना कर्णप्रिय था, कि रोम रोम पुलकित हो गया, 
सभी साधकों ने पंक्तिबद्ध हो कर पूज्य गुरुदेव से चरणामृत और आशीर्वाद लिया, समापन पर पूज्यश्री ने एक जोशीला नाद (भगवान भवानीशंकर की जय हो) किया, जिससे सभी साधक जोश से भर गए, गुरुदेव का स्नेहिल व्यवहार और आत्मीय अंतरंगता से संवाद बरबस ही आकर्षित कर लेता है,और परमानंद की अनूभूति करवाता है, जैसे ही मेरी चिकित्सीय दृष्टि पूज्य स्वामीजी पर तो उनकी देह का ताम्र वर्ण देख कर आभास हुआ कि इस चातुर्मास में उन्होंने अथाह साधना, समाधि, तप और लंघन किया है, इस कोरोना काल में समाज व मानवता की रक्षार्थ पूज्यपाद ने कितनी कठिन तपस्या की है, यह स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था, सुना है, कि आकाश मंडल में एक गुरु ग्रह है,  जब पृथ्वी से कोई ग्रह टकराकर पृथ्वी को क्षति पहुँचाने वाला होता है तो गुरु ग्रह पृथ्वी की अक्षुण्णता के लिए उस टकराने वाले अवांछनीय ग्रह को अपने में समाविष्ट कर लेता है, पृथ्वी पर मानव शरीर के रुप में प्राप्त गुरु भी शिष्यों के कल्याण के लिए ऐसा ही करते हैं, वह गुरु वर्तमान, भूत व भविष्य सब जानते हैं और उसी के अनुसार क्रीड़ा करते रहते हैं,

अपने पूज्य गुरु की गुरुत्व शक्ति को बढा़ने के लिए पात्र शिष्यों को अधिकाधिक साधना करनी चाहिए,

सांय को स्वामीजी *सीमोल्लंघन* हेतु आदिमठ गौकर्ण को रवाना हुए तथा उसी मार्ग स्थित नदी पर पूजन अर्चन कर चातुर्मास संपन्न किया, आदिमठ गौकर्ण में स्वामीजी का परंपरागत रूप से भव्य स्वागत किया गया तथा हम इस अद्भुत, अलौकिक दृश्य के साक्षी बने, आदिमठ में पूज्य गुरुदेव द्वारा संपूर्ण विधि विधान से पूजन किया गया तथा संक्षिप्त धर्मसभा को संबोधित किया गया, वहां एक  छः वर्षीय नन्ही बालिका द्वारा धाराप्रवाह स्तोत्र पठन पूज्यश्री को सुनाया गया जिससे स्वामी जी अत्यंत प्रसन्न हुए और बालिका को मिष्ठान्न दे कर अनुग्रहीत किया,

२१.९.२१ को सांय *युवधारा* द्वारा एक सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया गया जिसमें युवधारा के युवाओं का उत्साह देखते ही बनता था, इस संध्या में पूज्यश्री ने हमसे बीकानेर से लाई भेंट (बीकानेरी गज्जक) स्वीकार की तथा सभा में बच्चों को वितरित भी की, पूज्य गुरुदेव ने BJS समाज की कुशलक्षेम पुछी तथा आगामी नवरात्रि कार्यक्रम कार्ला तथा उसके तुरन्त बाद माउंट आबू के कार्यक्रम में आमंत्रित कर अनुग्रहीत किया, सांस्कृतिक संध्या में प्रोजेक्टर के माध्यम से पूज्य स्वामीजी श्रीमद् परिज्ञानाश्रम जी का विदेश स्थित चातुर्मास का *चलचित्र* दिखाया गया तथा आदरणीया *मीरा पाच्ची* द्वारा अभिनीत लघु हास्य नाटिका(नवरात्रि) भी दिखाई गई,

चूंकि शाम को ८ बजे हमारी ट्रेन थी सो हमें न चाहते हुए भी विदाई लेनी पड़ी, सभी से हम सुखद यात्रा की कामना ले कर रवाना हो गए, सूरत स्टेशन पर गुरुभ्राता *अतुल माम* से छोटी सी मुलाकात ही भावविह्वल कर गई, तीसरे दिन दोपहर को हम खाजूवाला पहुंचे तब तक गुरुभ्राता भगिनि के सुखद यात्रा और पहुंच की जानकारी हेतु फोन आ रहे थे,

कोई त्रुटि हो तो क्षमाप्रार्थी
सादर..
डॉ. राम

डॉ. राम सारस्वत

ॐ श्री गुरुभ्यो नमः
श्री भवानीशंकराय नमः
श्री मात्रे नमः


चातुर्मास संपन्न *सीमोल्लंघन* *समारोह" २०१७*

मुंबई पुणे द्रुतगामी राजमार्ग पर खंडाला व लोनावला के मध्य प्रकृति के अप्रतिम सौंदर्य से सुसज्जित कार्ला नगर स्थित "परिज्ञानाश्रम" व दुर्गा परमेश्वरी शक्तिपीठ में "सारस्वत मठाधीश सद्गुरु सद्योजात शंकराश्रम जी" के चातुर्मासोपरान्त सीमोल्लंघन महोत्सव धूमधाम से संपन्न हुआ ।

भवानीशंकर, माँ राजराजेश्वरी व पूज्य गुरुदेव की असीम कृपा से मुझे भी इस पुनीत पावन अवसर पर सपरिवार शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्रथम दिवस शिवपूजा, द्वितीय दिवस देवी अनुष्ठान, तृतीय दिवस पादुका पूजन तथा गुरुदेव के पवित्र करकमलों से चरणामृत प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
तदुपरांत सैकड़ों सारस्वत दीक्षार्थियों के साथ नदी तट पर आदिगुरू शंकराचार्य का पूजन गुरुदेव के सानिध्य में संपन्न हुआ तथा स्वामीजी द्वारा नौकायान से नदी पार कर सीमोल्लंघन उपक्रम पूर्ण किया गया।

इसके बाद हमारा कारवाँ सुप्रसिद्ध शक्तिपीठ "एकविरा मन्दिर पहुँचा वहाँ गुरुदेव के सानिध्य में देवी पूजन तथा आरती संपन्न हुई।
वहाँ कार्ला शहर के प्रशासन व गणमान्य नागरिकों द्वारा नागरिक अभिनंदन किया गया ।
तत्पश्चात् परम पूज्य  गुरुदेव ने आशीर्वचन द्वारा सभी साधकों को पावन किया।
श्री एकविरा शक्तिपीठ से भव्य रूप से सुसज्जित रथ में पूज्य गुरुदेव को सिंहासनारूढ़ करवा गाजे बाजे के साथ आश्रम तक तीन किलोमीटर लंबी शोभायात्रा निकाली गई।
रथ सिंहासनारूढ़ दैदीप्यमान गुरुदेव साक्षात् आदिगुरू शंकराचार्य सदृश दृष्टिगोचर हो रहे थे। सारस्वत अनुयायियों का अनुशासन व उमंग देखते ही बन रहा था।
शोभायात्रा के उपरांत हमें गुरुदेव  से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तथा उनके पवित्र कर कमलों से अमृत रूपी प्रसाद की प्राप्ति हुई।
तत्पश्चात् मंदिर परिसर में स्वामीजी द्वारा विश्व शांतिपाठ व आशीर्वचन हुए,
इस भव्य आयोजन के माध्यम से देश विदेश से पधारे सारस्वत बंधुओ से आत्मिक व स्नेहिल मिलन हुआ तथा एक व्यापक, सुसंस्कृत व आध्यात्मिक सारस्वत परिवार का अभिन्न अंग होने की गौरवान्वित अनुभूति हुई..!!
 

 

 

 

 
 

 

 

-    डॉ. राम सारस्वत

ॐ श्री गुरुभ्यो नमः
श्री भवानीशंकराय नमः
श्री मात्रे नमः

 

पिछले चातुर्मास समारोह में जब हम मल्लापुर मठ गये थे, तब हम सभी ने परम पूज्य गुरुदेव  स्वामी सद्योजात शंकराश्रम जी से निवेदन किया, कि गुरुदेव आप बीकानेर पधारें,
तब उन्होंने स्नेहिल मुस्कान के साथ कहा कि मैं नहीं, आप लोग शिराली आइए।
हमने सहर्ष गुरुदेव के निमंत्रण को स्वीकार कर लिया और उसी दिन से इस यात्रा की तैयारी शुरू कर दी।

 

चूँकि आध्यात्म के माध्यम से सारस्वत समाज को एक नई दिशा देनी थी अतः हमने तय किया कि कम से कम दौ सौ साधकों के साथ हमें शिराली  जाना है।
हालांकि मन में कुछ शंकाएं भी थी लेकिन गुरुदेव के आशीर्वाद का पूरा संबल हमारे साथ था।
तैयारियाँ करते करते जैसे ही ३१ दिसंबर आई, दौसौ से अधिक साधक तैयार हो गए। अंत में तो यह स्थिति हो गई कि करीब पचास साधकों को हमें ससम्मान मना करना पड़ा, क्योंकि हमारे पास टिकट प्रबंधन २२५ साधकों का ही था। 

हाड़तोड़ माइनस वाली ठिठुरती सर्दी में भी ३१ दिसंबर को बीकानेर का रेल्वे प्रतीक्षालय खचाखच भरा हुआ था।

बीकानेर के प्रबुद्ध नागरिकों ने आराध्य भगवान भवानीशंकर, नरसिंह गिरी जी महाराज, स्वामी परिज्ञानाश्रम जी,स्वामी सद्योजात शंकराश्रमजी जय उद्घोष के साथ हमें रवाना किया। रेलगाड़ी की ३६ घंटे की यात्रा आध्यात्मिक, रमणीक स्थल दर्शन, भजन कीर्तन, भोजन प्रसादी आदि के साथ निर्विघ्न संपन्न हुई।
मुर्डेश्वर स्टेशन पर उतरते ही गुरु भ्राताओं व शिष्यों ने स्वागत में पलक पावड़े बिछा दिये और विभिन्न बसों से ससम्मान हमें चित्रापुर सारस्वत मठ ले जाया गया।
उनका आतिथ्य सत्कार देख कर सभी साधक भाव विह्वल हो गए।
मठ में बिताए तीन दिन मानो तीन क्षण में व्यतीत हो गए हो,ऐसा प्रतीत हुआ।
मठ में ध्यान, प्राणायम, पूजापाठ, प्राचीन म्यूजियम, पंचवटी दर्शन, गौशाला दर्शन, सरोवर दर्शन आदि विभिन्न आध्यात्मिक व आधिदैविक क्रियाकलापों से आत्ममुग्धी का अहसास हुआ।

 

 

 

इस शिविर में सबसे खास बात यह रही कि सात बार हमें परम पूज्य गुरुदेव स्वामी सद्योजात शंकराश्रमजी से रूबरू होने का अवसर प्राप्त हुआ। गुरुदेव के सात बार आशीर्वचन व दर्शन से साधक भाव विह्वल हो गए। नौ बड़भागी साधक गुरुदेव से मंत्रदीक्षा प्राप्त कर निहाल हो गए। बहुत से साधकों को पवित्र पादुका पूजन का अवसर भी प्राप्त हुआ।शिविर के अंतिम चरण में गुरुदेव द्वारा पंक्तिबद्ध रूप से चरणामृत , मंत्राक्षत, तीर्थ, भिक्षाप्रसादी, भिक्षाफल का वितरण किया गया ।
इस यात्रा में गुरुदेव की इतनी कृपा व स्नेहाशीष रहा कि शब्दों में पिरोना मुझ जैसे तुच्छ बुद्धि के मानव के लिए असंभव है।

 

 

विश्व प्रसिद्ध  मुर्डेश्वर महादेव मंदिर दर्शन, समुद्र तट पर आनन्द अनुभूति साधकों को परमानंद का अहसास करवा गई।
मुर्डेश्वर से बीकानेर की यात्रा प्रकृति के अप्रतिम सौंदर्य को निहारते हुए, भजन कीर्तन करते हुए अद्भुत रूप से संपन्न हुई।
रास्ते में पड़ने वाले विभिन्न स्टेशनों पर समाज के प्रबुद्ध लोगों द्वारा प्रसाद सामग्री व भावातिरेक स्वागत किया गया।
नोखा व बीकानेर के मध्य मैंने और संपत सारस्वत ने समाज के बुजुर्गों और माताओं से आशीर्वाद लिया तो उनकी आशीर्वाद रूपी भावनाओं को न तो शब्दों मे पिरोया जा सकता है और ना ही अभिव्यक्त किया जा सकता है।

ज्यों ही बीकानेर स्टेशन पर उतरे तो ढोल नगाड़ों और पुष्प वर्षा से जो स्वागत हुआ वो अकल्पनीय व अवर्णनीय है।
सभी साधकों को उनके गंतव्यों की ओर रवाना करके हमने बीकानेर स्टेशन छोडा़।
आध्यात्मिक चेतना का हमारा यह प्रथम प्रयास कल्पना से परे अति आनंद दायक, मन आत्मा और बुद्धि को बल प्रदान करने वाला रहा।
इस सफल आयोजन में हम हमारे प्रयासों को तुच्छ मानते हुए, भगवान भवानी शंकर, माँ दुर्गा परमेश्वरी, नरसिंह गिरी जी महाराज, स्वामी परिज्ञानाश्रम जी व हमारे पूज्य गुरुदेव स्वामी सद्योजात शंकराश्रमजी के आशीर्वाद में ही सर्व निहित व निर्विघ्न संपूर्ण हुआ।
 

-    डॉ. राम सारस्वत

ॐ श्री गुरुभ्यो नमः
श्री भवानीशंकराय नमः
श्री मात्रे नमः

गुरु मिलन को मैं गया, छोड़ माया अभिमान..!
जीवन धन्य धन्य हो गया, लाखों यज्ञ समान..!!

इस वर्ष गुरुपूर्णिमा के पावन अवसर पर मल्लापुर (चातुर्मास स्थल २०२१) में आयोजन में भाग ले कर अपने आपको और बीकानेर सारस्वत समाज को धन्य किया।
चित्रापुर समाज के बंधुओं का आतिथ्य सत्कार और स्नेह से हम भावविभोर हो गए।
मात्र पाँच वर्षों के परिचय से ही ऐसा लगता है कि हमारा चित्रापुर सारस्वत समाज के साथ जन्म जन्मांतर का रिश्ता है और अबकी बार यह बात सिद्ध भी हो गई।
जब हम गुरुदेव के सानिध्य में कुटीर में बैठे थे तो गुरुराज ने हमारे समक्ष ही चित्रापुर मठ के दोनों वरिष्ठ वैदिकों (पुरोहित) को बुलाया और चित्रापुर समाज की वंशावली, गोत्र और इतिहास के बारे में चर्चा की तथा हम से भी गौत्र आदि की जानकारी ले कर वैदिकों को अवगत करवाया और निर्देश दिया कि सुबह आप पूरी जानकारी और अध्ययन कर मुझे अवगत करवायें।

सुबह ही वैदिकों ने बताया कि हमारा और आपका उद्गम एक ही है और गोत्र भी मिलते जुलते हैं।
ततपश्चात् गुरुपूर्णिमा के दिन आशीर्वचन में मठ के आराध्य भगवान भवानीशंकर से आज्ञा ले कर आधिकारिक रूप से घोषणा कर हमारे द्वारा उनके चरणों में समर्पित पूजा सामग्री स्वीकार की और कहा कि दोनों समाज आपस में मिल कर मानव कल्याण के कार्य करें तो दोनों समाजों का सांगोपांग विकास हो सकता है।

ये मेरे जीवन का सबसे अनमोल क्षण था और गुरुदेव के स्नेह और आशीर्वाद को शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता ...
हालांकि मठ द्वारा संचालित मानव कल्याण की गतिविधियों से हम अनभिज्ञ तो नहीं थे परंतु सतत सांमजस्य के अभाव में उत्तर क्षेत्र का साधक लाभान्वित नहीं हो पा रहा था,अबकी बार पूज्य स्वामी जी ने निर्देशित किया कि आप लोगों को भी इस पुनीत पावन यज्ञ में अपनी आहुति डालनी चाहिए और उसी दिन से हम चित्रापुर सारस्वत समाज के बंधु, भगिनि से सांमजस्य स्थापित करने के अपने प्रयास आरंभ कर दिये। सायुज्यम्, सत्संग आदि की मुख्य समितियों से नियमित संवाद स्थापित कर रहे हैं।

चूंकि बीकानेर, जोधपुर व उत्तर भारत के साधकों की भाषा हिन्दी है अतः आदरणीय शांतिश माम के निर्देशन में मठ की वेबसाइट में भी हिन्दी में सामग्री प्रेषण की योजनाएँ बन रही हैं। वेबसाइट के हिन्दी पेज "परिचयनम्" में भी अधिकाधिक सामग्री डालने की योजना है।

सरस्वती पुत्र सारस्वत समाज में प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है, बस पूज्य स्वामी जी के आशीर्वाद से उनको सामने लाने की आवश्यकता है, और उसी दिशा में सार्थक प्रयास कर रहे हैं। दोनों समाज अंगीकार हो कर निश्चित ही सफल होंगे ऐसी भगवान भवानीशंकर से प्रार्थना है,
  परम पूज्य गुरुदेव स्वामी सद्योजात शंकराश्रम जी के आशीर्वाद से चित्रापुर सारस्वत मठ व साधकों द्वारा संचालित "सायुज्यम्" तथा अन्य प्रकल्पों के संबंध में हम कई वर्चुअल बैठक कर चुके हैं तथा फोन पर भी परस्पर वार्तालाप अनवरत है।

 सायुज्यम् के ही अंग "सत्संग" प्रकल्प का आज गुरुवार ५/८/२०२१ सायं ७ बजे से ८ बजे तक प्रथम वर्चुअल भाग का आयोजन हुआ।
इसे आदरणीया शरयू पाच्ची ने आयोजित किया।
आदरणीया विजयलक्ष्मी पाच्ची द्वारा सभा आरंभ और सभा समाप्ति प्रार्थना का गायन किया गया तथा मेरे द्वारा दोहराया गया, सभी साधकों ने भी पीछे पीछे दोहरा कर सीखने का पूरा प्रयास किया ।
आदरणीय डॉक्टर गुलवाड़ी माम ने सभी श्लोकों का हिन्दी अनुवाद, टीका और विश्लेषण कर बहुत ही सरल शब्दों मे समझा कर अनुग्रहीत किया,
आदरणीया कंठ कोकिला गौरी पादुकोण पाच्ची ने अपनी मधुर वाणी में गुरुदेव को समर्पित "गुरुशरणं" भजन का गायन किया जिसे मंजूजी ने कुशलता से दोहराया।
आदरणीया विजयलक्ष्मी पाच्ची ने सारस्वत इतिहास,  गुरु परंपरा व आद्य गुरुदेव परिज्ञानाश्रम स्वामी जी, श्रंगेरी मठ तथा देवी उद्धरण आदि तथा गौकर्ण मठ की स्थापना के इतिहास की बृहद् जानकारी दी।

जोधपुर से आदरणीय मनीषा कैलाश जी सारस्वत की सुपुत्री गरिमा सारस्वत ने अपनी सुमधुर वाणी में गुरुदेव की महिमा में भजन प्रस्तुत किया जो सभी को सम्मोहित कर गया। बेटी का प्रथम प्रयास बहुत ही स्तरीय और  शानदार था उस पर स्वामी जी का अनुग्रह रहे, ऐसी कामना करता हूँ।
उत्तर क्षेत्र से प्रथम प्रयास में ही काफी साधक जुड़े और उनको बहुत ही अच्छा महसूस हुआ। सभी को यह आभास हुआ कि हम एक दूसरे को सदियों से जानते हैं।
एक परिवार की तरह सौहार्दपूर्ण संवाद हृदय को छू गया।
अगले गुरुवार को और अधिक साधक सत्संग में भाग लें, ऐसा प्रयास किया जायेगा।
सत्संग में शामिल सभी साधकों का कोटिशः आभार🙏
हम सभी पर पूज्य गुरुदेव, भगवान भवानीशंकर एवं मां दुर्गा परमेश्वरी की कृपा बनी रहे..

सद्योजात की ली पहन, जिसने यहाँ कमीज..!

उपजे नहीं विचारों में, वहाँ विषैले बीज..!!

कोई त्रुटि हो तो क्षमाप्रार्थी,🙏
जयशंकर🙏